सिटरस एक महत्तवपूर्ण फल की फसल है। लैमन इनमें से एक है। यह विश्व में इसके गुद्दे और रस के लिए जाना जाता है। दुनिया भर में विभिन्न खट्टे फलों का उपयोग भोजन या रस बनाने के लिए किया जाता है। उत्तरी भारत में, नागपुर में संतरे को व्यापक स्तर पर उगाया जाता है। आसाम, डिबरूगढ़ और ब्रह्मपुत्र घाटी नारंगी उत्पादक राज्य हैं। भारत में लगभग 923 हज़ार हैक्टेयर में सिटरस की खेती की जाती है, जिससे 8608 हज़ार मीट्रिक टन वार्षिक उत्पादन होता है। पंजाब में 39.20 हैक्टेयर भूमि पर सिटरस उगाया जाता है। सिटरस के कुल क्षेत्रफल के लगभग 55 प्रतिशत पर लैमन का उत्पादन किया जाता है।
मिट्टी
लैमन को मिट्टी की सभी किस्मों में उगाया जा सकता है। अच्छे निकास वाली हल्की मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी की पी एच 5.5-7.5 होनी चाहिए। इन्हें हल्की क्षारीय और अम्लीय मिट्टी में उगाया जा सकता है। अच्छे निकास वाली हल्की दोमट मिट्टी लैमन की खेती के लिए अच्छी होती है।
प्रसिद्ध किस्में और पैदावार
Lucknow seedless: इसके फल मध्यम आकार के और पीले रंग के होते हैं।
Pant Lemon: यह किस्म किस्म से तैयार की गई है। यह किस्म छोटे कद की होती है और इसके फल रसभरे होते हैं| यह रोग धफड़ी, कोढ़ और गुंदियां रोग के प्रतिरोधी है।
Lisbon lemon: यह ठंड और हवा के अधिक वेग के प्रतिरोधी है। इसके फल मध्यम आकार और पीले रंग के होता हैं, इसकी सतह नर्म होती है।
Galgal: यह किस्म निचली पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके फलों का आकार बड़ा, अंडाकार होता है। पकने पर इसके फल पीले रंग के हो जाते हैं। यह सख्त किस्म है जो कि ठंडे और गर्म को सहनेयोग्य है। इसकी उपज अच्छी होती है। यह किस्म आचार, कैंडी और स्क्वैश बनाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म दिसंबर के महीने में पक जाती है।
Eureka: यह किस्म अर्द्ध बढ़ने वाली होती है। इसके छिल्के का रंग लैमन पीला होता है। इसका रस स्वाद में बढ़िया और ज्यादा खट्टा होता है। इसके फल अंत अगस्त महीने में पक जाते हैं।
Villa Franca: इस किस्म का पौधा फैलने वाला, सीधा और कांटेदार होता है। फल अंडाकार से लंबाकार होते हैं। इसके फल मध्यम से बड़े आकार के होते हैं।
Assam lemon: यह फैलने वाली किस्म है। इसके फल आयताकर और लैमन रंग के होते हैं। इसमें बीज कम होते हैं।
दूसरे राज्यों की किस्में
Punjab Baramasi: आमतौर पर इसकी शाखाएं ज़मीन को स्पर्श करती हैं| नींबू के फल पीले, आकार में गोल जिसका तल लंबा और पतला होता है| कुदरती रूप से फल बीज-रहित और रसभरे होते हैं| इसकी औसतन पैदावार 84 किलो प्रति वृक्ष होती है|
Rasraj: यह किस्म IIHR द्वारा विकसित की गई है। पीले रंग के फलों में रस की मात्रा 70 % और 12 बीज होते हैं। इसकी खट्टेपन की मात्रा 6% और शुगर की मात्रा लगभग 8 ब्रिक्स है। यह किस्म पत्तों के झुलस रोग और कोढ़ रोग के प्रतिरोधी है।
Meyer Lemon: यह अर्द्ध छोटे कद की किस्म है। इसके फल हल्के रंग के होते हैं।
ज़मीन की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए, खेत की अच्छी तरह से जोताई, क्रॉस जोताई और अच्छे से समतल करना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों में ढलानों की बजाय मेंड़ पर रोपण किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में उच्च घनत्व रोपण भी संभव है।
बिजाई
बिजाई का समय
बिजाई के लिए मध्य जून से लेकर अंत सितंबर उपयुक्त होता है। शुरूआती विकास के दौरान तेज हवा को कम करने के लिए आम, अमरूद, जामुन, अनोला, शीशम या शहतूत खेत के चारों तरफ लगाएं।
फासला
पौधों के बीच 6x6 मीटर का फासला रखना चाहिए। नए पौधों की रोपाई के लिए गड्ढों का आकार 60x60x60 सैं.मी. होना चाहिए। गड्ढों में रोपाई के समय गली हुई रूड़ी की खाद 10 किलो और सिंगल सुपर फासफेट 500 ग्राम डालें।
बीज की गहराई
नए पौधों की रोपाई के लिए गड्ढों का आकार 60x60x60 सैं.मी. होना चाहिए।
बिजाई का ढंग
नए पौधों को मुख्य खेत में रोपित किया जाता है।
प्रजनन
पौधों का प्रजनन कलियों या एयर लेयरिंग द्वारा किया जाता है।
कटाई और छंटाई
पौधे के तने की अच्छी वृद्धि के लिए, ज़मीनी स्तर से 50-60 सैं.मी. नज़दीक की शाखाओं को निकाल देना चाहिए। पौधे का केंद्र खुला होना चाहिए। विकास की शुरूआती अवस्था में आस पास की टहनियों को निकाल देना चाहिए।
खाद
खादें (किलोग्राम प्रति वृक्ष)
Age of crop
(Year)
|
Well decomposed cow dung
(kg/tree)
|
Urea
(gm/tree)
|
First to three years | 5-20 | 100-300 |
Four to six years | 25-50 | 400-500 |
Seven to nine years | 60-90 | 600-800 |
Ten and above years | 100 | 800-1600 |
तत्व (किलोग्राम प्रति वृक्ष)
Age of crop
(Year)
|
Well decomposed cow dung
(kg/tree)
|
Nitrogen
(gm/tree)
|
First to three years | 5-20 | 50-150 |
Four to six years | 25-50 | 200-250 |
Seven to nine years | 60-90 | 300-400 |
Ten and above years | 100 | 400-800 |
फसल के 1-3 वर्ष की हो जाने पर, अच्छी तरह से गला हुए गाय का गोबर 5-20 किलो और युरिया 100-300 ग्राम प्रति वृक्ष में डालें। 4-6 वर्ष की फसल में, अच्छी तरह से गला हुआ गाय का गोबर 25-50 किलो और युरिया 100-300 ग्राम प्रति वृक्ष में डालें। 7-9 वर्ष की फसल में, यूरिया 600-800 ग्राम और गाय का गला हुआ गोबर 60-90 किलो प्रति वृक्ष में डालें। जब फसल 10 वर्ष की या इससे ज्यादा की हो जाए तो गाय का गला हुआ गोबर 100 किलो या यूरिया 800-1600 ग्राम प्रति वृक्ष में डालें।
गाय के गले हुए गोबर की पूरी मात्रा दिसंबर महीने के दौरान डालें जबकि यूरिया के दो हिस्से, पहला फरवरी महीने में और दूसरा अप्रैल-मई के महीने में डालें। यूरिया की पहली खुराक के समय सिंगल सुपर फासफेट खाद की पूरी मात्रा डालें।
यदि पकने से पहले फलों का गिरना देखा जाए तो फलों के ज्यादा गिरने को रोकने के लिए 2,4-D 10 ग्राम को 500 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। पहली स्प्रे मार्च के अंत में, फिर अप्रैल के अंत में करें। अगस्त और सितंबर के अंत में दोबारा स्प्रे करें। यदि सिटरस के नज़दीक कपास की फसल उगाई गई हो तो 2,4-D की स्प्रे करने से परहेज़ करें, इसकी जगह GA3 की स्प्रे करें।
सिंचाई
लैमन की फसल को नियमित अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। सर्दियों और गर्मियों में जीवन बचाव सिंचाई जरूर देनी चाहिए। फूल आने के समय, फल लगने के समय और पौधे के अच्छे विकास के लिए सिंचाई आवश्यक है। ज्यादा सिंचाई से जड़ गलन और तना गलन की बीमारियों का खतरा होता है। उच्च आवृत्ति की सिंचाई फायदेमंद होती है। नमकीन पानी फसल के लिए हानिकारक होता है।
पौधे की देखभाल
हानिकारक कीट और रोकथाम
सिटरस सिल्ला:
ये रस चूसने वाला कीड़े हैं। निंफस के कारण नुकसान होता है। यह पौधे पर एक तरल पदार्थ छोड़ता है जिससे पत्ता और फल का छिल्का जल जाता है। पत्ते मुड़ जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं। प्रभावित पौधों की छंटाई करके उन्हें जला कर इसकी रोकथाम की जा सकती है। मोनोक्रोटोफॉस 0.025% या कार्बरिल 0.1% की स्प्रे भी लाभदायक हो सकती है।
स्केल कीट:
सिटरस स्केल कीट बहुत छोटे कीट होते हैं जो सिटरस के वृक्ष और फलों से रस चूसते हैं। ये कीट शहद की बूंद की तरह पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे चींटियां आकर्षित होती हैं। इनका मुंह वाला हिस्सा ज्यादा नहीं होता है। नर कीटों का जीवनकाल कम होता है। सिटरस के पौधे पर दो तरह के स्केल कीट हमला करते हैं, कंटीले और नर्म स्केल कीट। कंटीले कीट पौधे के हिस्से में अपना मुंह डालते हैं और उस जगह से बिल्कुल नहीं हिलते, उसी जगह को खाते रहते हैं और प्रजनन करते हैं। नर्म कीट पौधे के ऊपर परत बना देते हैं जो पौधे के पत्तों को ढक देती है और प्रकाश संश्लेषण क्रिया को रोक देते हैं। जो मरे हुए नर्म कीट होते हैं वो मरने के बाद पेड़ से चिपके रहने की बजाय गिर जाते हैं। नीम का तेल इन्हें रोकने के लिए प्रभावशाली उपाय है। पैराथियोन 0.03% इमलसन, डाइमैथोएट 150 मि.ली. या मैलाथियोन 0.1% की स्प्रे भी इन कीटों को रोकने के लिए प्रभावशाली उपाय है।
चेपा और मिली बग:
ये पौधे का रस चूसने वाले छोटे कीट हैं। कीड़े पत्ते के अंदरूनी भाग में होते हैं। चेपे और कीटों को रोकने के लिए पाइरीथैरीओड्स या कीट तेल का प्रयोग किया जा सकता है।
बीमारियां और रोकथाम
सिटरस का कोढ़ रोग:
पौधों में तनों, पत्तों और फलों पर भूरे, पानी रंग जैसे धब्बे बन जाते हैं। सिटरस कैंकर बैक्टीरिया पौधे के रक्षक सैल में से प्रवेश करता है। इससे नए पत्ते ज्यादा प्रभावित होते हैं। क्षेत्र में हवा के द्वारा ये बैक्टीरिया सेहतमंद पौधों को भी प्रभावित करता है।
दूषित उपकरणों के द्वारा भी यह बीमारी सवस्थ पौधों पर फैलती है। यह बैक्टीरिया कई महीनों तक पुराने घावों पर रह सकता है। यह घावों की उपस्थिति से पता लगाया जा सकता है। इसे प्रभावित शाखाओं को काटकर रोका जा सकता है। बॉर्डीऑक्स 1 % स्प्रे, एक्यूअस घोल 550 पी पी एम, स्ट्रैप्टोमाइसिन सल्फेट भी सिटरस कैंकर को रोकने के लिए उपयोगी है।
गुंदियां रोग:
वृक्ष की छाल में गूंद निकलना इस बीमारी के लक्षण हैं। प्रभावित पौधा हल्के पीले रंग में बदल जाता है। तने और पत्ते की सतह पर गूंद की सख्त परत बन जाती है। कई बार छाल गलने से नष्ट हो जाती है और वृक्ष मर जाता है। पौधा फल के परिपक्व होने से पहले ही मर जाता है। इस बीमारी को जड़ गलन भी कहा जाता है। जड़ गलन की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करना, जल निकास का अच्छे से प्रबंध करने से इस बीमारी को रोका जा सकता है। पौधे को नुकसान से बचाना चाहिए। मिट्टी में 0.2 % मैटालैक्सिल MZ-72 + 0.5 % ट्राइकोडरमा विराइड डालें, इससे इस बीमारी को रोकने में मदद मिलती है। वर्ष में एक बार ज़मीनी स्तर से 50-75 सैं.मी ऊंचाई पर बॉर्डीऑक्स को जरूर डालना चाहिए।
लैमन का धफड़ी रोग :
यह नारंगी किस्मों और लैमन के फलों को प्रभावित करता है। फल की विकृतियों के कारण वृक्ष की शाखाओं, फलों और पत्तों पर सलेटी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। फल विकास के शुरूआती समय में ही गिरने लग जाते हैं। यह फंगस के कारण होता है। पौधे को लैमन के धफड़ी रोग से बचाने के लिए कॉपर को सफेद तेल के साथ मिक्स करके हरे पत्तों के ऊपर स्प्रे करें। सफेद तेल के दो चम्मच को दो लीटर पानी में मिलाकर, कॉपर के 5 लीटर स्प्रे मिक्सचर को भी डालना चाहिए।
आयरन की कमी:
नए पत्तों का पीले हरे रंग में बदलना आयरन की कमी के लक्षण हैं। पौधे को आयरन कीलेट दिया जाना चाहिए। गाय और भेड़ की खाद द्वारा भी पौधे को आयरन की कमी से बचाया जा सकता है। यह कमी ज्यादातर क्षारीय मिट्टी के कारण होती है।
फसल की कटाई
उचित आकार के होने के साथ आकर्षित रंग, शुगर की मात्रा 12:1 होने पर किन्नू के फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। किस्म के आधार पर फल मध्य जनवरी से मध्य फरवरी के महीने में तैयार हो जाते हैं। कटाई उचित समय पर करें। ज्यादा जल्दी और ज्यादा देरी से कटाई करने पर घटिया गुणवत्ता के फल मिलते हैं।
कटाई के बाद
कटाई के बाद फलों को पानी से अच्छे से धोयें फिर क्लोरीनेटड 2.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर इसमें फलों को भिगो दें। तब इन्हें अलग अलग करके सुखाएं। अच्छी गुणवत्ता के साथ आकार में सुधार लाने के लिए सिट्राशाइन वैक्स फोम लगाएं। फिर इन फलों को छांव में सुखाएं और पैकिंग करें। फलों को बक्सों में पैक किया जाता है।
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