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कलियुगी पति-भक्ति- उत्तर प्रदेश की लोक-कथा

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क्या मथुरा, क्या बरसाना - क्या गोकुल, क्या नंदगांव! मतलब यह कि ब्रजक्षेत्र की इंच - इंच जमीन पर पतिव्रता सुशीला की महिमा गाई जाती थी। लोग कहते कि अगर साक्षात पतिव्रता नारी के दर्शन करना चाहते हो तो देवी सुशीला के दर्शन करो। थी भी यही बात। सुशीला की जिन्दगी का हर पल अपने पति के लिए था। पति के दर्शन किए बिना वह जल न पीती। एक बार वह अपनी एक सहेली के यहाँ गई। सहेली का पति कहीं परदेस गया हुआ था। लेकिन खाने के लिए सहेली ने नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन पकाए थे। सुशीला यह देखकर हक्की - बक्की रह गई। वह तो पति की अनुपस्थिति में एक बूंद तक ग्रहण करने की बात न सोच सकती थी। इसलिए उससे न रहा गया। वह बोली,"बहन, तुम कैसी स्त्री हो! तुम्हारे पति तो परदेस में हैं और तुमने अपने लिए इतनी तरह के व्यंजन पकाए हैं। भला एक पतिव्रता के लिए यह सब शोभा देता है! सच्ची पतिव्रता तो वह है जो पति को देखे बिना जल तक न पिए।"

सुशीला की सहेली बड़े मुंहफट स्वभाव की थी। दिल की भी वह बड़ी साफ थी। बोली,"बहन सुशीला, यह सब ढकोसलेबाजी मुझसे नहीं चलती। अगर मैं अपने पति के बाहर होने पर भी अच्छा खाना खाती हूँ तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि मैं उन्हें नहीं चाहती। मैं तो जैसी खुश उनके सामने रहती हूँ वैसी ही उनके पीछे भी। अगर कोई मुझ पर उंगली उठाने पर ही तुला होगा तो उसे मैं रोक नहीं सकती। बाकी यह तो सिर्फ मैं जानती हूँ या मेरे पति, कि हम एक - दूसरे को कितना चाहते हैं।"सहेली के इस जवाब से सुशीला जल - भुनकर रह गई। उसने मुंह चुनियाकर कहा,"यह तो सब ठीक है, लेकिन तुम पतिव्रता नहीं हो। पतिव्रता स्त्री के लिए शास्त्रों में लिखा है कि पति की गैरहाजिरी में वह जल तक न पिए।"सहेली ने इसका भी करारा जवाब दिया। बोली,"ऐसे शास्त्र मेरे ठेंगे से!"अन्त में बात यहाँ तक बढ़ गई कि सुशीला तुनककर अपने घर लौट आई।

घर आकर सारा किस्सा उसने अपने पति को बताया। पति भी सुशीला को बहुत चाहता था और उसकी निष्काम पति - भक्ति से बहुत प्रभावित था। फिर भी कभी - कभी उसे यह जरूर लगता था कि यह सब ढोंग है। अगर पति एक महीना तक घर पर न रहे तो क्या कोई स्त्री बिना अन्न - पानी के एक महीना तक रह सकती है! और उसे लगा कि यह बिलकुल असंभव है। अगर कोई जिद्दी स्त्री इस बात पर अड़ ही जाए तो जीवित नहीं बच सकती। यह सोचकर पति ने सुशीला की परीक्षा लेने का विचार बनाया। कई दिनों तक वह तरह - तरह से सुशीला को कसौटी पर कसता रहा, लेकिन सुशीला हर बार खरी उतरती। कभी वह स्नान देर से करता, तो कभी खेत से दोपहर ढले लौटता। कभी - कभी तो ऐसा होता कि परोसी थाली तक सामने होने पर वह बहाना बनाकर बाहर निकल जाता और दिन ढले लौटता। लेकिन सुशीला ने कभी भी पति के खाने से पहले पानी तक न पिया। एक दिन सुशीला के पति ने कहा,"आज मेरा मन खीर और पुआ खाने का हो रहा है। इसलिए खूब इलायची गरी डालकर पुए और चिरौंजी, किशमिश, केसर डालकर खीर बना बनाओ।"ये दोनों चीजें सुशीला को भी बड़ी प्रिय थीं। इसलिए खूब मन लगाकर उसने ये चीजें बनाई। केसर और इलायची और देसी घी की सुगन्ध से बनाते समय ही सुशीला के मुंह में पानी आने लगा। चीजें बना चुकने के बाद सुशीला ने अपने पति से झटपट स्नान कर लेने को कहा।

लेकिन पति को तो उस दिन धैर्य की परीक्षा लेनी थी। इसलिए काफी देर तक वह ढील डाले रहा और टालता रहा। सुशीला के बार - बार कहने पर, आखिर में हारकर, वह बाल्टी - लोटा और रस्सी लेकर नहाने गया। नहाने में भी उसने काफी देर लगा दी। इधर सुशीला की आतें मारे भूख के कुलबुलाने लगी थी। लेकिन जैसे ही देहरी के बाहर उसे पति के खड़ाऊं की आवाज सुनाई दी, उसे दिलासा बंधी कि अब तो खाने का समय आ ही गया। लेकिन जैसे ही पति ने देहरी दे अंदर पैर रखे, दायें पैर की खड़ाऊं से पैर ऐसा फिसला कि वह चारों खाने चित फैल गया। बाल्टी - लोटा हाथ से छूटकर दूर जा गिरे और आँखें फैली की फैली रह गई। यह देखा तो सुशीला जिस हालत में थी वैसी ही दौड़ी पास जाकर सिर हिलाया, आवाजें दीं, लेकिन सब बेकार। पति अगर जिंदा होता तब तो बोलता ही, लेकिन उसके तो प्राण पखेरू उड़ चुके थे, इसलिए भला वह कैसे बोलता।

सुशीला की आंखें डबडबा आई और गला भर आया। उसका मन हुआ कि धाड़ मारकर रो पड़े। लेकिन तभी उसे खीर और पुए का ध्यान हो आया। उसने सोचा कि पति अब मर ही गए हैं। रोने से जी तो पाएंगे नही। हां, आस - पड़ोस के लोग जरूर जुड़ जाएंगे। और तब खीर - पुए खाने का मौका तो मिलने से रहा। इसलिए बेहतर यह होगा कि पहले मैं खीर - पुए खा लूं, तब रोना - धोना शुरू करूं। यह सोचकर वह चुपचाप गई और जल्दी - जल्दी खीर उड़ाने लगी। पुए अगले दिन के लिए रख लिए, क्योंकि उनके खराब होने का डर न था। असलियत यह थी कि पति मरा नहीं था, बल्कि मरने का नाटक किए पड़ा था। इसलिए अपनी पत्नी की यह सारी हरकतें वह देखता रहा। जब सुशीला खीर खूब जी भरकर खा चुकी तो झटपट मुंह धोया और लम्बा - सा घूंघट निकालकर पति के पास गई और सीने से चिपटकर रोने लगी। रोने के साथ - साथ वह यह भी कहती जाती थी - -

"तुम तो चले परमधाम कूं, हम हूँ सूं कुछ बक्खौं (कहो)।"

उसका पति कुछ देर तक तो उसके नकली प्रेम और दुख को सहन करता रहा। लेकिन अन्त में उससे न रहा गया। और जैसे ही सुशीला ने अपना जुमला `तुम तो चले परधाम कूं हम हूँ सूं कुछ बक् खौ' खत्म किया, वैसे ही उसके पति ने उसीसे मिलता - जुलता एक जुमला जड़ दिया। पति का जुमला इस प्रकार था - -

खीर सड़ोपा करि तौ पुअनूं कूं तौ चक् खौ।"

अब तो सुशीला की ऐसी हालत हो गई कि काटो तो खून तक न निकले। उसे क्या पता था कि उसका पति नाटक किए पड़ा है और उसकी परीक्षा ले रहा है! मन ही मन वह रह - रहकर अपने आपको कोसती रही कि यह क्या किया। क्यों न जबान पर काबू रखकर बुद्धि से काम लिया! और उसके बाद फिर कभी किसी ने सुशीला के मुंह से अपने पतिव्रत धर्म की तारीफ नहीं सुनी। पहले जैसी डींगे हांकना अब सुशीला ने बन्द कर दिया था।

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