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पंचायत जयशंकर प्रसाद

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मन्दाकिनी के तट पर रमणीक भवन में स्कन्द और गणेश अपने-अपने वाहनों पर टहल रहे हैं।
नारद भगवान् ने अपनी वीणा को कलह-राग में बजाते-बजाते उस कानन को पवित्र किया, अभिवादन के उपरान्त स्कन्द, गणेश और नारद में वार्ता होने लगी।
नारद-(स्कन्द से) आप बुद्धि-स्वामी गणेश के साथ रहते हैं, यह अच्छी बात है, (फिर गणेश से) और देव-सेनापति कुमार के साथ घूमते हैं, इससे (तोंद दिखाकर) आपका भी कल्याण ही है।
गणेश-क्या आप मुझे स्थूल समझकर ऐसा कह रहे हैं? आप नहीं जानते, हमने इसीलिए मूषक-वाहन रखा है, जिसमें देव-समाज में वाहन न होने की निन्दा कोई न करे, और नहीं तो बेचारा ‘मूस’ चलेगा कितना? मैं तो चल-फिर कर काम चला लेता हूँ। देखिये, जब जननी ने द्वारपाल का कार्य मुझे सौंप रखा था, तब मैंने कितना पराक्रम दिखाया था, प्रमथ गणों को अपनी पद-मर्यादा हमारे सोंटे की चोट से भूल जाना पड़ा।
स्कन्द-बस रहने दो, यदि हम तुम्हें अपने साथ न टहलाते, तो भारत के आलसियों की तरह तुम भी हो जाते।
गणेश-(हँसकर) ह-ह-ह-ह, नारदजी! देखते हैं न आप? लड़ाके लोगों से बुद्धि उतनी ही समीप रहती है, जितनी की हिमालय से दक्षिणी समुद्र!
स्कन्द-और यह भी सुना है।-ढोल के भीतर पोल!
गणेश-अच्छा तो नारद ही इस बात का निर्णय करेंगे कि कौन बड़ा है।
नारद-भाई, मैं तो नहीं निर्णय करूँगा; पर, आप लोगों के लिए एक पंचायत करवा दूँगा, जिसमें आप ही निर्णय हो जायगा।
इतना कहकर नारदजी चलते बने।

2
वटवृक्ष-तल सुखासीन शंकर के सामने नारद हाथ जोड़कर खड़े हैं। दयानिधि शंकर ने हँसकर पूछा-क्यों वत्स नारद! आज अपना कुछ नित्य कार्य किया या नहीं?”
नारद ने विनीत होकर कहा-नाथ, वह कौन कार्य है?”
जननी ने हँसकर कहा-वही कलह-कार्य।
नारद-माता! आप भी ऐसा कहेंगी, तो नारद हो चुके; यह तो लोग समझते ही नहीं कि यह महामाया ही की माया है, बस, हमारा नाम कलह-प्रिय रख दिया है।
महामाया सुनकर हँसने लगीं।
शंकर-(हँसकर)-कहो, आज का क्या समाचार है?
नारद-और क्या, अभी तो आप यों ही मुझे कलहकारी समझे हुए बैठे हैं, मैं कुछ कहूँगा, तो कहेंगे कि बस तुम्हीं ने सब किया है। मैं जाता तो हूँ झगड़ा छुड़ाने, पर, लोग मुझी को कहते हैं।
शंकर-नहीं, नहीं, तुम निर्भय होकर कहो।
नारद-आज कुमार से और गणेशजी से डण्डेबाजी हो चुकी थी। मैंने कहा-आप लोग ठहर जाइए, मैं पंचायत करके आप लोगों का कलह दूर कर दूँगा। इस पर वे लोग मान गये हैं। अब आप शीघ्र उन लोगों के पञ्च बनकर उनका निबटारा कीजिए।
शंकर-यहाँ तक! अच्छा, झगड़ा किस बात का है?
नारद-यही कि देवसेना-पति होने से कुमार अपने को बड़ा समझते हैं, और (जननी की ओर देखकर) बुद्धिमान होने से गणेश अपने को बड़ा समझते हैं।
जननी-हाँ-हाँ, ठीक ही तो है, गणेश बड़ा बुद्धिमान है।
शंकर ने देखा कि यह तो यहाँ भी कलह उत्पन्न किया चाहता है, इसलिए वे बोले-वत्स! तुम इसमें अपने पिता को ही पञ्च मानो, कारण कि जिसको हम बड़ा कहेंगे, दूसरा समझेगा कि पिता ने हमारा अनादर किया है-अस्तु, तुम शीघ्र ही इसका आयोजन करके दोनों को शान्त करो।
नारद ने देखा कि, यहाँ दाल नहीं ग़लती, तो जगत्पिता के चरण-रज लेकर बिदा हुए।

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नारद अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे। उन्होंने सब हाल सुनकर कहा-वत्स! तुझे क्या पड़ी रहती है, जो तू लड़ाई-झगड़ों में अग्रगामी बना रहता है, और व्यर्थ अपवाद सुनता है?
नारद-पिता! आप तो केवल संसार को बनाना जानते हैं, यह नहीं जानते कि संसार में कार्य किस प्रकार से चलता है। यदि दो-चार को लड़ाओ न, और उनका निबटारा न करो, तो फिर कौन पूछता है? देखिए, इसी से देव-समाज में नारद-नारद हो रहा है, और किसी भी अपने पुत्र की आपने देव-समाज में इतनी चर्चा सुनी है?
ब्रह्मा-तो क्या तुझे प्रसिद्धि का यही मार्ग मिला है?
नारद-मुझे तो इसमें सुख मिलता है-
“येन केन प्रकारेण प्रसिद्ध: पुरुषो भवेत् ।”
ब्रह्मा-अब तो शंकर की आज्ञा हुई है, जैसे-तैसे इसको करना ही होगा, किन्तु हम देखते हैं कि गणेशजी जननी को प्रिय हैं; अतएव यदि उनकी कुछ भी निचाई होगी, तो जननी दूसरी बात समझेंगी! अस्तु! अब कोई ऐसा उपाय करना होगा कि जिसमें बुद्धि से जो जीते, वही विजयी हो। अच्छा, अब सबको शंकर के समीप इकठ्ठा करो।
नारद यह सुनकर प्रणाम करके चले।

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विशाल वटवृक्षतले सब देवताओं से सुशोभित शंकर विराजमान हैं। पंचायत जम रही है। ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले-गणेशजी और कुमार में इस बात का झगड़ा हुआ है कि कौन बड़ा है? अस्तु, हम यह कहते हैं कि जो इन लोगों में से समग्र विश्व की परिक्रमा करके पहले आवेगा, वही बड़ा होगा।
स्कन्द ने सोचा-चलो अच्छी भई, गणेश स्वयं तुन्दिल हैं-मूषक-वाहन पर कहाँ तक दौड़ेंगे, और मोर पर मैं शीघ्र ही पृथ्वी की परिक्रमा कर आऊँगा।
फिर वह मोर पर सवार होकर दौड़े। गणेश ने सोचा कि भव और भवानी ही तो पिता-माता हैं, अब उनसे बढक़र कौन विश्व होगा। अस्तु, यह विचारकर शीघ्र ही जगज्जनक, जननी की परिक्रमा करके बैठ गये।
जब कुमार जल्दी-जल्दी घूमकर आये, तो देखा, तुन्दिलजी अपने स्थान पर बैठे हैं।
ब्रह्मा ने कहा-देखो, गणेशजी आपके पहले घूमकर आ गये हैं!
स्कन्द ने क्रोधित होकर कहा-सो कैसे? मैंने तो पथ में इन्हें कहीं नहीं देखा!
ब्रह्मा ने कहा-क्या मार्ग में मूषक का पद-चिह्न आपको कहीं नहीं दिखाई पड़ा था?
स्कन्द ने कहा-हाँ, पद-चिह्न तो देखा था।
ब्रह्मा ने कहा-उन्होंने विश्वरूप जगज्जनक, जननी ही की परिक्रमा कर ली है। सो भी तुम्हारे पहले ही।
स्कन्द लज्जित होकर चुप हो रहे।

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