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लेटर-बॉक्स अज्ञेय

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शरणार्थी कैम्प में मेरा अपना कोई नहीं था, पर जिन-जिन अपनों का पता लेना चाहता था, प्रायः सभी का कोई-न-कोई साथी वहाँ मिल गया और सबकी खबर मुझे मिल गयी थी। कितनी बड़ी से बड़ी दुर्घटना को मनुष्य ‘न-कुछ’ करके निकाल देता है यदि वह कह सके कि ‘मेरे अपनों की कोई क्षति नहीं हुई!’ मैंने कैम्प के बाहर निकल कर कई-एक चिट्ठयाँ लिखीं - कुछ जिनके पते मिल गये थे, उनको कुछ अपने और परिचितों को जो उनके बारे में जानने को उत्सुक होंगे - सब पर पते लिखे और जेबी डायरी में से टिकट निकाल कर लगाये, और डाक में छोड़ने चला। छुट्टी का दिन था, पर मुझे डाकघर से कुछ लेना नहीं था, कैम्प जाते हुए मैंने देख लिया था कि रास्ते में वहाँ डाकघर पड़ता है ताकि डाक जल्दी से निकल जाये। छोटी जगहों में लेटर-बॉक्स से डाक निकलने में एक दिन की देरी तो होती है, अधिक न हो-छोटी जगहों में कोई त्वरा का बोध ही नहीं होता, बड़ी जगह में ही यह धुन होती है कि सब-कुछ जल्दी हो, तेजी के साथ हो, क्योंकि हर किसी को काम है, और हर काम ज़रूरी है, और हर जरूरत तात्कालिक।
डाकघर पहुँचकर देखा, बॉक्स के मुँह पर टीन का ढक्कन लगा रहता है, वह टेढ़ा होकर मुँह में ऐसा फँसा है कि चिट्ठी भीतर डालना मुश्किल है; चिट्ठी फँस कर रुक जाती है। कोशिश करके देखा, एक-एक चिट्ठी को मोड़कर भीतर घुसाकर और हाथ डालकर अन्दर कुछ दूर तक ठेले देने से फिर वह भीतर जा गिरती है-भीतर फर्श पर गिरने की आवाज़ ‘खिश्’ सुनाई देती थी। मैं चिट्ठियों को एक एक करके डालने लगा।
देखा, मुझसे कुछ दूर पर एक छोटा-सा लड़का मेरी ओर देख रहा है। मन उस पर केन्द्रित नहीं हुआ, यों ही मैं उसकी ओर मुस्करा दिया। बच्चों के लिए लेटर-बॉक्स ताजमहल और पिरामिडों से कम पात्रता नहीं रखता, संसार के सात अचरजों में स्थान पाने का, यह मुझे अपने बचपन से याद था! भीतर चिट्ठी छोड़ दें और जहाँ चाहो पहुँच जाये, और लेटर बॉक्स ज्यों-का-त्यों-क्या यह जादू से कुछ कम है? और लेटर-बॉक्सों में यह अनोखा है जिसके मुँह में चिट्ठी डालने के लिए मुँह ढूँढ़ना पड़ता है और फिर चिट्ठी तक ठेलनी पड़ती है - लेटर-बॉक्सों में कबन्ध है यह! लड़का मेरे चिट्ठी डालने के व्यायामों को देख रहा होगा। अस्पष्ट ढंग से यही सब सोचते हुए मैं उसकी ओर मुस्करा दिया।
अन्तिम चिट्ठी छोड़ता हुआ मैं फिर चेहरे पर मुस्कान फैलाकर उसकी ओर मुड़ा। वह अब की मेरी ओर देख रहा था, पर अब की बार मैंने लक्ष्य किया, उसके चेहरे पर कौतूहल नहीं, धैर्य का भाव है - अपार धैर्य का और प्रतीक्षा का-
मैंने लेटर-बॉक्स से हाथ निकाला और जाने को हुआ कि लड़के ने जैसे साहस बटोर कर पूछा, “जी, इसमें कहाँ की चिट्ठी जाती है?”
मैंने कहा, “सब जगह की। तुझे कहाँ भेजनी है चिट्ठी?”
“बाबूजी को।”
“हाँ, मगर कहाँ-कोई जगह भी तो हो?” कहते हुए मैंने देखा उसके हाथ में एक कुचला-मुचला पोस्टकार्ड भी है। मैंने उसके लिए हाथ बढ़ाकर कहा, “देखूँ!”
उसने कुछ अनाश्वस्त भाव से पोस्टकार्ड मेरी ओर बढ़ाया। मैंने उसे हथेली पर बिलकुल सीधा किया, देखा कि पोस्टकार्ड पर तो मोटे-मोटे अक्षरों में कुछ लिखा है पर पते की जगह खाली है। मैंने हँसकर, पता, “पता भी तो लिखना होगा, पगले! क्या पता है?”
“सो तो बाबूजी बताएँगे - मुझे क्या मालूम-” आवाज़ रुआँसी हो गयी और मैंने देखा, ओठों की कोर काँप रही है। मैंने तनिक नरम होकर पूछा, “तुम्हारा घर कहाँ है?”
“शेखपुरे-”
अब स्थिति बिजली की कौंध की तरह मेरी समझ में आ गयी। मैंने उसे ध्यान से देखा। उम्र कोई पाँच वर्ष; उजला गोरा रंग, यद्यपि इस समय मैल की धारियों ने उसे छिपा लिया है; तन पर एक फटी कमीज और एक और भी फटा कोट, कमर के नीचे नंगा, टाँगों पर जहाँ-तहाँ चोटों के सूखे खुरंट और पैर सूजे हुए। सिर नंगा, बाल रूखे और कुछ भूरे से आँखों में एक गहराई जो निरी बचपन की गहराई नहीं, एक छिपाव, एक काठिन्य और दूरी लिये हुए। मैंने और भी नरम स्वर में पूछा, “शेखपुरे में कहाँ?”
“बीरावली।’
“बाबूजी तेरे वहीं हैं?”
“नहीं, वहाँ से तो चले थे-”
“तू यहाँ किसके साथ आया?”
“एक आदमी के साथ।”
“कौन आदमी ? नाम नहीं पता?”
“नहीं। रास्ते में था।”
मैं डाकघर के बरामदे की रेलिंग के सहारे बैठ गया और उससे पूरी बात पूछने लगा। लड़के का नाम था रोशन; घर से वह माँ और चाचा के साथ चला था लाहौर जाने के लिए। पिता भी गाँव से शेखपुरे तक साथ आये थे, वहाँ से अलग हो गये थे, एक-दूसरे गाँव में जाने के लिए, जहाँ से रोशन की बुआ और फूफा को लाना था। दोनों बूढ़े थे और बाल-बच्चा उनका कोई नहीं था - दो बेटे जंग में मारे गये थे जापान की तरफ़। लाहौर में आ मिलने को कह गये थे। लाहौर की तरफ़ जाते-जाते और भी कई लोग उनके साथ हो गये थे, लेकिन रास्ते में कुछ लोगों ने बन्दूकों से बहुत-सी गोलियाँ चलायीं और कुछ साथ के मारे गये - चाचा भी मर गये। पर साथियों ने रुकने नहीं दिया। बहुत जल्दी-जल्दी बढ़ते गये। लाहौर में बाबूजी के मिलने की बात थी, पर लाहौर वे लोग गये ही नहीं। रास्ते में और बहुत से लोग मिले थे, उन्होंने कहा कि लाहौर जाना ठीक नहीं इसलिए रास्ते में से मुड़ गये। दूसरे दिन फिर दो-चार लोग गोलियों से मर गये, फिर एक जगह बहुत से लोगों ने लाठी और कुल्हाड़ी लेकर वार किया। जमकर लड़ाई हुई पर हमला करनेवाले बहुत थे, इधर के आदमी बहुत-से मारे गये या गिर गये। वे लोग औरतों को पकड़कर ले जाने लगे। माँ को भी उन्होंने पकड़ लिया। माँ चिल्लाई पर जिसने पकड़ा था उसने जोर से उनका मुँह अपने कन्धे के साथ दाब दिया, तब माँ ने कन्धे पर बड़े ज़ोर से काट लिया और उस आदमी के झँझाड़ने पर भी नहीं छोड़ा। तब उस आदमी ने चीखकर माँ को झटके के साथ अलग करके ज़मीन पर पटक दिया, और कुल्हाड़ी की उल्टी तरफ़ से मुँह पर वार किया - माँ चिल्लाई तो रोशन ने आँखे बन्द कर लीं, खोलीं तो माँ का मुँह, नाक, जबड़ा, कुछ नहीं था; लहू से भरा सिर था, बस, और वह आदमी माँ की छाती पर एक पैर रखकर अभी और चोट करता जा रहा था मुँह पर - साथियों ने रोशन को पकड़ा और लड़ते-लड़ते भागते चले। दूर निकल गये तो आक्रमणकारियों ने पीछा छोड़ दिया - कुछ औरतों को वे पकड़ ले गये - आठ-दस दिन में रोशन की टोली जालंधर पहुँची, पर तब उसमें पहले दिन का एक भी साथी नहीं था, सब नये चेहरे थे, और इन्हीं में से एक उसे वहाँ तक ले आया था। वह कैम्प में था, रोशन भी, पर रोशन का जी नहीं लगता वहाँ और बाबूजी के पास जाना चाहता है - माँ तो मर गयीं।
लड़का रोने लगा था। रोता जाता था और कहानी कहता जाता था। मैं और भी पूछ सकता, पर इससे आगे जानने को क्या था?
मैंने कहा, “रोशन, तू कैम्प में लौट जा और वहीं रह अभी। मैं तेरा नाम और कैम्प का पता देकर रेडियो से ख़बर करवाऊँगा, तेरे बाबूजी गर सुनेंगे तो तुझे चिट्ठी लिखेंगे। और फिर यहीं कैम्प में आ सकेंगे। समझा?” मैं उसकी पीठ थपथपा कर उठा।
“और मेरी चिट्ठी? मैं भी तो उन्हें लिखना चाहता हूँ।”
मैं ठिठक गया।
“हाँ, तेरी चिट्ठी। तेरी चिट्ठी-” आगे क्या कहूँ? बच्चे से धोखा करना बहुत बड़ा पाप है - मैंने कहा, “इस कार्ड को तू शेखपुरे गाँव के पते पर डाल दे।”
“हूँ, वहाँ से तो चले गये-”
“बुआ के गाँव गये थे, वहीं का पता-”
“वहाँ तो उनको लेने गये थे, वहाँ बैठे थोड़े ही रहेंगे?”
“ठीक कहते हो, बेटा!” लड़के का तर्क बिलकुल ठीक है। मैं उसे क्या बताऊँ कि कहाँ का पता लिखे, जिससे पत्र उसके बाबूजी को मिल ही जाये! सोच कर मैंने कहा, “लेकिन वहाँ से डाकखाने वाले आगे भेज देंगे न, जहाँ तेरे बाबूजी गये होंगे।”
“डाकखाने वालों को क्या पता भला? तुम कुछ नहीं जानते बाबू साहब! मेरी चिट्ठी मुझे दो-”
मैंने चाहा, कहूँ, ‘हाँ बेटा, ठीक कहते हो तुम, मैं सचमुच कुछ नहीं जानता’ पर प्रत्यक्ष मैंने केवल कहा, “लो-”
उसने पोस्टकार्ड फिर मेरे हाथ से ले लिया। मैंने मेहनत से उसे सीधा किया था, उसने फिर उसे कसकर पकड़ा और पहले-सा मरोड़ लिया। मैं धीरे-धीरे वहाँ से हटकर चलने लगा। चलते-चलते मैंने देखा, उसके चेहरे के आँसू सूख गये हैं, और वही धैर्य का, सीमाहीन धैर्य का भाव उसके चेहरे पर लौट आया है कि शायद अब मेरे बाद जो चिट्ठी छोड़ने आये वह मुझसे अधिक जानता हो और उसे बता दे कि वह अपनी चिट्ठी किस पते पर छोड़े ताकि वह बाबूजी को मिल जाये!

(इलाहाबाद, 1947)

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