बहुत समय पहले की बात है। गंगावती नगर के महाराज शिकार को निकले। शिकार की तलाश में सुबह से शाम हो गई। तभी अचानक उनकी नजर एक जंगली सूअर पर पड़ी। महाराज ने घोड़े को एड़ लगाई और सूअर का पीछा करने लगे। कुछ ही देर में सूरज छिप गया और घना अंधेरा छाने लगा।
सूअर पत्तों की आड़ में खो गया। महाराज ने अपने आस-पास देखा। उनके निकट कोई सैनिक न था। शिकार की धुन में वे स्वयं जंगल में अकेले निकल आए थे।
महाराज को शीघ्र ही भूख-प्यास सताने लगी। सर्दियों का मौसम था। कुछ ही दूरी पर आग जलती हुई दिखाई दी। एक औरत आग सेंक रही थी। उसने महाराज को नहीं पहचाना और बोली-
“मुसाफिर हो क्या? भूखे-प्यासे भी लगते हो?'
महाराज ने सिर हिलाकर हामी भरी।
उस औरत का नाम नीलम्मा था। वह खाने के लिए थोड़ा-सा भात और सब्जी ले आई। भोजन स्वादिष्ट था। खाने के बाद महाराज ने पूछा-
'तुम इस घने जंगल में अकेली रहती हो?'
'नहीं, मेरे पति भी साथ रहते हैं। वह अभी बाजार गए हैं।' नीलम्मा ने उत्तर दिया।
वह दोनों लकड़ी का कोयला बेचकर गुजारा करते थे। उसी समय नीलम्मा का पति भी आ पहुँचा। उसने राजसी वेश पहचान लिया और महाराज को प्रणाम किया। तब नीलम्मा को पता चला कि जिसे वह एक मुसाफिर समझ रही थी, वे तो महाराज हैं।
महाराज ने खुश होकर उन्हें चंदन वन उपहार में दे दिया। तभी सैनिक भी महाराज की खोज में वहीं आ पहुँचे और महाराज लौट गए।
इस बात को कई वर्ष बीत गए। एक दिन महाराज पुनः शिकार खेलते-खेलते चंदन वन में जा पहुँचे। तभी उन्हें नीलम्मा और उसके पति की याद आई। उन्होंने सोचा कि वे दोनों भली प्रकार जीवन-यापन कर रहे होंगे।
अचानक उन्होंने देखा कि एक बूढ़ी स्त्री लकड़ियों के टुकड़े चुन रही थी। उन्हें देखते ही वह स्त्री, उनके पैरों पर गिर पड़ी।
महाराज नीलम्मा की दीन दशा को देखकर चौंक गए और पूछा-
'क्या तुम्हारा पति तुम्हें छोड़ गया है?'
'नहीं, महाराज! हम आज भी उसी तरह प्रेम से रहते हैं और लकड़ी का कोयला बनाकर बेचते हैं।'
'क्या?' नीलम्मा की बात सुनकर महाराज ने माथा पीट लिया।
उन दोनों ने सारे चंदन वृक्षों को लकड़ी का कोयला बना-बनाकर बेच दिया था। महाराज ने नीलम्मा के पति को लकड़ी का एक टुकड़ा देकर कहा, “जरा इसे बाजार में बेच आओ।'
बाजार में चंदन की लकड़ी हाथों-हाथ बिक गई। नीलम्मा के पति को बहुत से रुपये मिले। तब उसकी समझ में आया कि उसने कितनी बड़ी मूर्खता की है।
उपहार में मिला चंदन वन उनकी अज्ञानता के कारण नष्ट हो गया।
(मूर्ख व्यक्ति कीमती और मूल्यवान वस्तु को भी अपनी लापरवाही से दो कौड़ी का बना देता है।)
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