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यदि ऐसा होता: इंग्लैंड की लोक-कथा

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किसी जंगल में तीन सखियां-एक हंसिनी, एक मुर्गी और एक बत्तख़ रहती थीं। तीनों अपने को बहुत अधिक बुद्धिमान समझती थीं। उन्हें अपनी दशा पर तनिक भी सन्‍्तोष नहीं था।

बत्तख़ कहती-“अरी, क्या बताऊं, मुझे तो विधाता के अनाड़ीपन पर बेहद गुस्सा आता है। भला बता तो, मेरा शरीर तो इतना सुन्दर बना दिया पर पैरों का नाश पीट दिया। तेजी से दौड़ भी नहीं सकती। चिपटे झिल्लीदार पंजे। ऊंह! यह भी कोई पैर-में-पैर हैं। जान पड़ता है, उनका सांचा ही बिगड़ गया था। लेकिन बगुले जी के पैर...अहा, उनके लम्बे-लम्बे पतले पैर कितने सुन्दर लगते हैं। अगर मेरे पैर भी वैसे ही होते तो कितना अच्छा होता!”

मुर्गी कहती-“अरी, जी में तो ऐसा आता है कि यदि मुझे विधाता मिल जाएं तो खूब आड़े हाथों लूं। रूप-रंग तो दे दिया ऐसा लुभावना, पर बोली दी गंवारों जैसी-कुकड़ं-कूं, कुकडं-कूं। अकेले रूप को क्या चाटूं! सच कहती हूं, जब कोई गाने के लिए कहता है तो शरम के मारे धरती में गड़ जाती हूं। भला इस फटे बांस की-सी आवाज़ से कैसे गाऊं? अहा! सितार की बोली कितनी प्यारी होती है, कितनी मीठी! अगर मेरी बोली भी सितार की-सी होती तो कितना अच्छा होता!”

अन्त में हंसिनी कहती, “बहनो, तुमने तो अपना-अपना दुखड़ा रो लिया, अब मेरी भी तो सुनो। मेरे साथ तो विधाता ने बहुत ही जुल्म किया है। देखो तो, विधाता ने मेरी देह पर कितने रोएं लाद दिये हैं। मैं पूछती हूं, क्या लाभ है इनका? मेरे लिए तो ये बोझ हैं। इसके सिवाय इनसे मुझे तकलीफ भी होती है। जो भी मनुष्य मुझे देखता है, पकड़कर मेरे शरीर में से बहुत से रोएं नोच लेता है। उफ! उस समय मुझे कितना कप्ट होता है, मैं क्या कहूं! मैं तो विधाता को खूब कोसा करती हूं। अगर ये रोएं मेरे शरीर पर नहीं रहते तो कितना अच्छा होता ।”
तीनों सखियां प्रतिदिन इसी तरह विधाता को कोसती रहतीं।

एक बार विधाता दुनिया की सैर के लिए निकले। जब उन्होंने तीनों सखियों की बातें सुनीं तो हँसकर बोले, “तुम तीनों कल सवेरे सूरज निकलने से पहले पूरब की ओर मुंह करके खड़ी हो जाना और आंखें मूंदकर जो इच्छा हो कह देना। तुम जैसा चाहेगी, वैसा ही हो जाएगा।”

यह सुनकर तीनों सखियां खुशी के मारे फूली न समायीं। जैसे-तैसे करके उन्होंने दिन बिताया और ज्योंही दूसरे दिन सुबह हुई, तो आंखें मूंदकर पूरब की ओर मुंह करके खड़ी हो गयीं।

और जब उन्होंने आंखें खोलीं तो देखा कि उनकी इच्छाएं पूरी हो गयी हैं।

हंसिनी अपने शरीर पर के सारे रोएं गायब देख ख़ुशी से कूदने लगी, मुर्गी ख़ुशी के मारे चीख उठी और बत्तख़ अपने लम्बे पतले पैरों को देखकर खुशी से फूली न समायी।

हंसिनी जब तक छाया में खड़ी रही तब तक उसे ठंड लगती रही, लेकिन जब वह धूप में चली गयी तो गरमी के मारे उसका बुरा हाल हो गया। उसके शरीर पर अब रोएं तो थे नहीं, जिससे वह ठंड या गरमी सहन कर सकती | अब तो हंसिनी बहुत परेशान हुई | उसे अब पता चला कि रोएं उसके लिए कितने ज़रूरी थे।

इधर नाश्ते के समय मुर्गी अपने बच्चों को बुलाने गयी। उसके बच्चे कहीं दूर खेल रहे थे। मुर्गी ज़ोर से चिल्लायी, “ट्रि ट्रि टुं टुं-टननन नीं।”

बच्चों के लिए यह आवाज़ एकदम नयी और डरावनी थी। वे यह सुनकर मुर्गी के पास आने के बजाय और दूर भाग गये। अब तो मुर्गी बहुत परेशान हुई। वह ज्यों-ज्यों उन्हें बुलाती त्यों-त्यों वे दूर भागते । अन्त में मुर्गी रुआंसी-सी होकर एक तरफ खड़ी हो गयी।

इधर जब बत्तख़ कूदती-फुदकती हुई तालाब में नहाने के लिए चली तो पानी में कूदते ही उसे जैसे काठ मार गया। यह क्या? वह तो बिलकुल तैर नहीं सकती। अब क्या होगा? वह समझ गयी कि अपने चिपटे झिल्लीदार पंजों के कारण ही वह तेज़ी से तैर सकती थी। अब तो वे रहे नहीं।

शाम को तीनों सखियां फिर एक जगह इकट्ठी हुईं। तीनों बड़ी दुखी और खोयी-खोयी-सी मालूम पड़ती थीं।

हंसिनी परेशान होते हुए बोली, “मेरे शरीर पर से रोएं क्या गायब हुए, मेरी तो जान पर बन आयी। मैं या तो किसी दिन ठंड से ठिठुरकर मर जाऊंगी या गरमी में झुलस जाऊंगी। उफ! मेरे रोएं अब कैसे वापस मिलेंगे?”

मुर्गी ने रोकर कहा, “सितार की-सी आवाज़ मांगकर तो मैं भी पछता रही हूं। बच्चे मेरी बोली सुनकर दूर भाग जाते हैं, मेरे पास आने में कतराते हैं। हाय, अब मैं अपनी बोली कैसे वापस लाऊं?”

बत्तख़ उदास स्वर में बोली, “मेरा तो और भी बुरा हाल है। मेरे नये पैर तो तैरने में कतई साथ नहीं देते। इनसे तो मेरे पुराने पैर कहीं अच्छे थे। हाय, मैं उन पैरों को फिर कैसे पाऊं?”

अगले दिन सुबह फिर तीनों सखियां आंखें मूंद पूरब की ओर मुंह करके खड़ी हो गयीं।

और भाग्य से तोनों की इच्छाएं फिर से पूरी हो गयीं। हंसिनी अपने रोएंदार शरीर को देख खुशी से नाच उठी। मुर्गी 'कुकड़ं-कूं, कुकडं-कूं' चिल्लाती अपने बच्चों को ढूंढने चली गयी और बत्तख़ झिल्लीदार पंजेवाले पैर देख खुशी के मारे तालाब में कूद पड़ी।

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