मानसून खराब रहने का अर्थ इस देश के लिए सिर्फ आर्थिक ही नहीं है। इसका असर उस संस्कृति पर भी पड़ता है, जिसे देश के जनमानस ने अपनी आर्थिक जरूरतों, सामाजिक रवायतों और प्रकृति के सौंदर्य के साथ बुना है। सावन के साथ न सिर्फ हमें बारिश की बूंदे और धान की रोपाई याद आती है, बल्कि आल्हा, कजरी, झूला जैसी न जाने कितनी शैलियों के लोकगीत हमारी स्मृति में ताजा हो जाते हैं। कजरी अगर अवध, भोजपुर और मिथिला क्षेत्र में गाई जाती है, तो आल्हा का क्षेत्र इससे भी बड़ा है। ये सभी लोककलाएं किसी-न-किसी तरह से कृषि अर्थव्यवस्था से भी जुड़ी हैं। कजरी जहां धान की रोपाई के समय या पेड़ों पर झूले के समय गाई जाती थी, तो वहीं जब किसान धान की रोपाई से खाली हो जाते थे, तो आल्हा का जोर चल पड़ता था। एक समय में वीर रस की यह लोकशैली इतनी लोकप्रिय थी कि आल्हा गाने वाले अच्छे गायक सावन से बहुत पहले ही बुक हो जाते थे। बनारस और मिर्जापुर में कजरी गाने वालों का दंगल होता था और इसका आयोजन राजघराने करते थे। मिर्जापुर आज भी सावन, झूला और कजरी गाने वालों की राजधानी मानी जाती है।
हालांकि झूला और सावन जैसे लोकगीत कजरी में समाहित हो गए हैं। आल्हा का क्षेत्र मुख्यत: बुंदेलखंड रहा है। आज के बुंदेलखंड में मध्य प्रदेश के सात और उत्तर प्रदेश के आठ जिले आते हैं। यह क्षेत्र आल्हा-उदल की वीरता और दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान से हुए उनके युद्ध की गौरव स्मृति में आज भी आकंठ डूबा है। आल्ह खंड की 52 लड़ाइयां आज भी बुंदेलखंड के गांवों में बड़े चाव से गाई और सुनी जाती हैं। लेकिन अब सावन में हमसे बारिश ही नहीं रूठी, ये लोकगीत भी रूठ से गए हैं। यह दुर्भाग्य केवल सावन के गीतों के साथ नहीं है, सभी तरह के लोकगीत हमसे रूठते जा रहे हैं। हालांकि इनकी धुनें आज के फिल्मी गानों में खूब इस्तेमाल हो रही हैं, लेकिन वाद्ययंत्र गायब हो गए हैं। गांवों, कस्बों के जो लोग इन गीतों को गाने में एक उत्सव की तरह शामिल होते थे, वे अब बस इनके श्रोता भर रह गए हैं। कभी जो पीढ़ी आल्हा सुनने के लिए आषाढ़ से पहले ही बेचैन होने लगती थी, अब वह मोबाइल पर एमपी-थ्री गाने सुनती दिखाई देती है।
कई पीढ़ियों के लोग जब एक साथ मिलकर गीत गाते थे, तो लोक संगीत की परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अपने आप चली जाती थी। बड़े लोग उत्सव मनाते थे, तो उनके साथ उत्सव मनाते हुए नौजवान और बच्चे गाने के सुर-ताल और उसकी परंपरा सीख लेते थे। बारिश इस बार कम हुई, या कहीं-कहीं नहीं भी हुई। बारिश तो अगले साल फिर हो जाएगी। बारिश के बाद कीड़े-मकोड़ों की आवाजें और मेंढकों की टर्र-टर्र भी फिर सुनाई देने लगेगी। लेकिन सावन में गाए जाने वाले लोकगीत हो सकता है कि कुछ समय बाद हमें सुनाई न दें। वे जंगल और बाघ से पहले लुप्त हो सकते हैं।
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