मणिपुर की राजधानी इम्फाल में लोकटक झील के किनारे झोपड़ी में नन्ही सी लड़की एबेथोई रहती थी। जब एबेथोई चार साल की थी, तब उसके पिता इस दुनिया से चल बसे थे। वह अपनी मां के साथ रहती थी। झील के आसपास रहने वाले हिरण और पेड़ों पर रहने वाली तरह-तरह की चिडियां, एबेथोई के दोस्त बन गए थे। वह उन्हें उछलते, कूदते और उड़ते देखती रहती, इसी में उसका मन बहल जाता और दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता।
कभी-कभी एबेथोई अपनी मां के साथ लोकटक झील के किनारे जाती। एक दिन लोकटक झील में उसकी मां अपनी डोंगी से मछली पकड़ने गई। एबेथोई भी अपनी मां के साथ गई। उसकी मां ने झील में जाल फेंका और उसे बाहर खींच लिया। उस दिन जाल में सिर्फ एक छोटी मछली ‘नगाखा मेई’ फंसी। नगाखा मेई लाल पूंछ वाली प्यारी-सी बार्ब मछली होती थी। न जाने उसकी मां को क्या सूझा, उन्होंने नगाखा मेई को झील के पानी में वापस छोड़ दिया। उन्होंने उससे कहा, ‘तुम वापस पानी में जाओ नगाखा मेई। अगली बार अपने मम्मी-पापा, भाई-बहन और दोस्तों को साथ लेकर आना।’
नन्ही एबेथोई को मां का ऐसा करना बहुत अच्छा लगा। वह मन-ही-मन सोचने लगी कि उसकी मम्मी कितनी दयालु और अच्छी है। लगता है, मां ने नगाखा मेई को उसके परिवार दोस्तों के साथ बुलाया है ताकि एबेथोई उनके साथ दोस्ती कर ले और उनके साथ खेल सके।
एबेथोई को यह सब सोचकर बहुत अच्छा लग रहा था कि अब हिरण, चिडियां, फूल, पौधों के साथ छोटी मछली ‘नगाखा मेई’ भी उसके दोस्तों के हुजूम में शामिल हो गई है। धीरे-धीरे समय बीतता गया। अचानक एबेथोई की मां बीमार हुई और उन्होंने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। इस दुनिया में अब अकेली एबेथोई और अकेली हो गई।
उसने बहुत हिम्मत कर डोंगी चलाना सीखा। जब उसे बात करने का मन करता, अपनी डोंगी में बैठती और अपनी एटा यानी दोस्त नगाखा मेई के पास पहुंच जाती। नगाखा मेई अपने मम्मी-पापा के साथ चट्टान के नीचे पानी में रहती थी। वह वहां पहुंचकर पहले सीटी बजाती फिर पुकारती - एटा!
एबेथोई की आवाज सुनकर, नगाखा मेई बाहर आ जाती। फिर दोनों बातें करते। नगाखा मेई, एबेथोई से पूछती, ‘एटा एबेथोई, क्या तुम्हें अकेलेपन से डर लगता है’?
‘नहीं! मैं क्यों डरूंगी, जब तुम सब मेरे साथ हो’।
‘क्या तुम मछुआरों से हमें बचाओगी’?
‘क्यों नहीं! जरूर बचाऊंगी’।
एक रोज मछली पकड़ने के लिए कुछ मछुआरे लोकटक झील के किनारे आए। उन्होंने बड़ा-सा जाल झील में फेंका।
मछलियां चिल्लाईं- ‘एटा! एबोथोई! हमें बचाओ’।
उनकी चीख-पुकार एबेथोई के कान में पहुंची। मछलियों की आवाज सुनकर एबेथोई पहले थोड़ी घबराई, ‘यह क्या हो गया’?
फिर, हिम्मत और दिमाग से काम लेना बेहतर समझा। वह सीटी बजाती हुई अपनी डोंगी को लेकर, जहां नगाखा मेई रहती थी, उस चट्टान की ओर बढ़ गई। सीटी की आवाज सुन मछलियां समझ गईं कि उनकी एटा यानी दोस्त एबेथोई आ रही है। जब एबेथोई उनके पास पहुंची तो सारी मछलियां उसकी डोंगी में चुपचाप आ गईं। इधर शाम तक मछुआरे जाल डालकर बैठे रहे। आखिर, जब एक भी मछली जाल में नहीं फंसी, तब थककर उन्होंने अपना जाल समेट लिया।
मछुआरों की गतिविधियों को एबेथोई अपनी झोपड़ी से देखती रही। जैसे ही मछुआरे अपने घर को रवाना हुए, एबेथोई ने सारी मछलियों को दोबारा लोकटक झील में छोड़ दिया। मछलियों ने जान बचाने के लिए एबेथोई का शुक्रिया अदा किया। नन्ही मछली नगाखा मेई ने एबेथोई से वादा किया कि वह अपनी इस दोस्ती को हमेशा निभाएंगी।
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