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बत्तख पालन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

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कुक्कुट पालन के समान बत्तख पालन का इतिहास भी भारत में काफी पुराना है परन्तु अभी तक बत्तख पालन एक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं हो सका है वरन यह गांव एवं देहात के गरीब लोगों तक ही सीमित है।कुक्कुट पालन के क्षेत्र में हमारे देश में अभूतपूर्व उन्नति हुई है और इसके फलस्वरूप कुक्कुटपालन घरों के आंगन तक ही सीमित न रहकर उद्योग स्तर तक जा पहुँचा है । इस उद्योग के निरंतर वृद्धिरत रहने हेतु अन्य नस्लों के पक्षियों उदाहरनार्थ बत्तख बटेर गीज तथा टर्की पालन का समावेश होता अत्यंत महत्वपूर्ण है अनेक विकसित तथा विकासशील देशों में अंडा एवं मांस उत्पादन क्षेत्र में बत्तख पालन का योगदान महत्वपूर्ण है।

भारत में बत्तख पालन-

हमारे देश में अंडा उत्पादन तालिका में मुर्गियों के पश्चात बत्तख का ही स्थान है वर्तमान समय में हमारे देश के पूर्वी तथा दक्षिणी क्षेत्रों में लम्बा समुद्र तट होने के कारण जल बहुल्य क्षेत्र बत्तखों के लिए प्राकृतिक आवास के रूप में उपलब्ध है,परंतु अभी भी लगभग 80 प्रतिशत बत्तख पालन ग्रामीण एवं लघु कृषक ही कर रहे हैं जो सुव्यवस्थित संचालन के तौर तरीकों से अनभिज्ञ हैं। इनके द्वारा पाली गई अधिकतर बत्तख देशी नस्ल की हैं जो प्राकृतिक विधि द्वारा आहार ग्रहण करती हैं और जिनकी अंडा उत्पादन क्षमता भी 130 से 140 अंडा प्रति पक्षी प्रतिवर्ष होती है वैज्ञानिक विधि द्वारा बत्तख पालन केवल कुछ ऐसी इकाइयाँ जो केंद्र सरकार द्वारा संचालित हैं और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा ही किया जा रहा है । यद्यपि अंडा मांस उत्पादन हेतु मुर्गी पालन का स्तर स्थिर रहा है फिर भी हमारे देश के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में बत्तख पालन का योगदान प्रतिवर्ष लगभग चार करोड़ रूपये रहा है ।
  • मुर्गी की अपेक्षा 40.50 अंडे अधिक देती है जिससे उद्योग के लाभांश में वृद्धि होती है ।
  • बत्तख लम्बी अवधि तक अंडे देती है तथा जीवन के दूसरे एवं तीसरे वर्ष में भी लाभदायक उत्पादन देती है अतरू बत्तख की उत्पादन आयु अधिक है ।
  • मुर्गी के अंडे की तुलना में बत्तख के अंडे का वजन 15.20 ग्राम अधिक होता है और प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है ।
  • आमतौर पर दलदलीए अधिक वर्षा वाला और कच्छ प्रदेश जिसमें नमी एवं पानी की अधिकता होती हैए मुर्गी पालन व्यवसाय के लिए अधिक उपयुक्त नहीं होता परंतु वहाँ बत्तख पालन अत्यंत सफलतापूर्वक किया जा सकता है अत: किसान इस प्रकार की भूमि को बत्तख पालन के लिए उपयोग करके लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
  • तालाब झील एवं अन्य जल बहुल्य क्षेत्रों में कवक ;फंजाईद्धए शैवाल;एल्गी. जल में उगने वाली घास घोंघे, मछलियाँए कीड़े इत्यादि बत्तखों के लिए प्रक्रितक आहार है अत: बत्तख के ऊपर किया जाने वाला आहार व्यय कम हो जाता है ।
  • मुर्गियों के अंडे सांयकाल तक एकत्रित करने होते हैं जबकि बत्तख 98 प्रतिशत अंडे प्रात: 9 बजे से पूर्व ही दे देती हैं इससे मजदूरी की बचत तथा विपणन में सुविधा होती है ।
  • बत्तख एक समझदार पक्षी है जो आवश्कतानूसार समय पर बाहर घूम फिर कर अपने निश्चित दड़बे में बिना किसी विशेष प्रयत्न के आ सकते हैं।
  • मुर्गी की तुलना में बत्तख की देखरेख कम करनी पड़ती है एवं उसमें विशेष कुशलता  की आवश्यकता नहीं होती है क्योकि बत्तख की प्रतिरोधक शक्ति स्वभावत: कुछ अधिक होती है एवं बत्तख को घर की आवश्यकता नहीं होती । साधारणतया रात्रि के समय बत्तख घर में रखे जाते हैं एवं दिन के समय अहाते में खुले छोड़ दिए जा सकते हैं ।
  • बत्तख के अंडे का छिलका मोटा होने का कारण इनके स्थानांतरण में टूट.फूट का भय कम रहता हैं एवं कम टूट.फूट के कारण ही इनसे होने वाले अंतत: लाभ में वृद्धि होती है ।
  • बत्तख के अंडे तथा मांस हमारे देश के बड़े वर्ग द्वारा उपयोग किये जाते हैं और नकूच क्षेत्रों में इसकी दूसरे पक्षियों के मांस तथा अंडे की तुलना में अत्यधिक मांग है ।
  • बत्तख में मुर्गियों के अपेक्षा रोगों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है,अत: इनमें मृत्युदर तथा रोग भी मुर्गी की अपेक्षा कम होती हैं।
  • बत्तख मुर्गी की अपेक्षा अधिक शांत स्वभाव वाली पक्षी है तथा आसानी से पाली जा सकती है, जबकि मुर्गी से यह मर्यादा नहीं होती । मुर्गी में भक्षक प्रवृति होती है वे एक दूसरे को चोंच से मारती है और मांस तक खा लेती हैं ।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि बत्तख पालन क्षेत्र का विकास हमारे देश में अंडे तथा मासं की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

बत्तख जाति का नस्ल-

बत्तख पालन आरम्भ करने से पूर्व अत्यंत आवश्यक है नस्ल का चुनाव जिस प्रकार मुर्गियों की विभीन्न जातियाँ हैं और उन्हें गुणों के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है ,इसी प्रकार बत्तख को भी उनके गुण, रंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर निम्नलिखित जातियों के अंतर्गत विभाजित किया गया है:
क .अंडा देने वाली जाति ;लेयर
  • इंडियन रनर ;उपजाति, सफेद, काला, हल्का पीला ;पान भूरा ;चोकलेटी
  • कैम्पबेल ;उपजाति खाकी सफेद और काला

ख .मासं वाली जाति ;ब्रोयलर
  • पेकिन, एलिसबरी, मस्कोवी ;6 उपजाति,आरफीगंटन ;5 उपजातिद्धए राउन इत्यादि

ग .शोभादायक जाति ;आरना मेंटल
  • काल मंडारिन,ईस्ट इन्डिय, डेका इत्यादि शोभादायक जाति आर्थिक कारणों को दृष्टिगत रखते हुए अधिक प्रचलित नहीं है।

बतख पालन शुरू करने के लिए शांत जगह बेहतर होती है । अगर यह जगह किसी तालाब के पास हो तो बहुत अच्छा होता है । क्योंकि बतखों को तालाब में तैरने के लिए जगह मिल जाती है,अगर बतखपालन की जगह पर तालाब नहीं है तो जरूरत के मुताबिक तालाब की खुदाई करा लेना जरूरी होता है। तालाब में बतखों के साथ मछलीपालन भी किया जा सकता है अगर तालाब की खुदाई नहीं करवाना चाहते हैं तो टीनशेड के चारों तरफ  2.3 फुट गहरी व चौड़ी नाली बनवा लेनी चाहिए, जिस में तैर कर बतखें अपना विकास कर सकती हैं।बतखपालन के लिए प्रति बतख डेढ़ वर्ग फुट जमीन की आवश्यकता पड़ती है इस तरह 5 हजार बतखों के फार्म को शुरू करने के लिए 3750 वर्ग फुट के 2 टीनशेडों की आवश्यकता पड़ती है इतनी ही बतखों के लिए करीब 13 हजार वर्ग फुट का तालाब होना जरूरी होता है।

बतखों की प्रजाति का चयन-

क्रेसटड वाईट नस्ल का बत्तख- 
इस नस्ल को सजावटी नसल के तौर पर जाना जाता है। यह मध्यम आकार की होती है और इसे दोनों मंतवों के लिए उपयोग किया जाता है। ये जल्दी बढ़ते है और अच्छी लेयर देते हैं। नर बत्तख का भार लगभग 7 पाउंड और मादा बत्तख का भार 6 पाउंड होता है। इस नस्ल की दो किस्में होते हैं काली और सफेद, लेकिन अन्य किस्में जैसे सलेटी, बादामी और नीले रंग की किस्में प्रजनकों द्वारा तैयार की जाती हैं।

वाईट पेकिन नस्ल का बत्तख- 
यह मीट उत्पादन  वाली नसल है और इसका मूल स्थान चीन है। इसके पंख बड़े आकार के सफेद, संतरी पीले रंग की चोंच, लाल पीले रंग के पंख  और पीले रंग के पैर होते हैं। इनके अंडों का रंग सफेद होता है लेकिन इन्हें इनके सबसे अच्छे मीट उत्पादन के लिए जाना जाता है। ये बुरी बैठने वाली, स्वभाव से घबरायी हुई होती है और इनसे धीरे से व्यवहार करना चाहिए।

आयलसबरी नस्ल का बत्तख- 
यह मांस का उत्पादन करने वाली नसल है। इसे डीलक्स टेबल पक्षी के नाम से भी जाना जाता है और सबसे बड़ी घरेलू बत्तखों में से एक के तौर पर भी जाना जाता है। इनके पंख सफेद रंग के, छोटी और संतरी रंग की टांगे होती हैं। हड्डियों का भार कम होता है और अंडे सफेद रंग के होते हैं। यह नसल सबसे अच्छी मीट उत्पादक है और 8 सप्ताह के अंदर अंदर अपनी मार्किटिंग हासिल करती है। नर आयलसबरी का भार 4.5-4.5 किलो और मादा आयलसबरी का भार 4.1-5.0 किलो होता है।

मसकवी नस्ल का बत्तख- 
यह मीट उत्पादित करने वाली नसल है। हंस की तरह यह नसल चर भी सकती है और घास भी खा सकती है। नर बत्तख के पंख मुड़े हुए नहीं होते और मादा बत्तख के 16 सप्ताह की उम्र तक भी पूरे पंख नहीं बढ़ते। इनके पंजे तीखे होते हैं, त्वचा खुरदरी  होती है और मजबूत और ताकतवर उड़ान होती है। इस नसल की आगे दो प्रजातियां हैं जो निम्नलिखित हैं:
सफेद किस्म :  इस किस्म की टांगे हल्की पीली और पीले रंग रंग की होती हैं, पंख शुद्ध सफेद रंग के और चोंच पीले रंग की होती है।
गहरी किस्म : इस किस्म का शरीर और पीठ चमकीले नीले काले रंग की होती है।

इंडियन रन्नर का बत्तख- 
यह एक अंडों का उत्पादन करने वाली नसल है। इस नसल की आगे तीन किस्में हैं। यह एक लेयर होती है जो प्रति वर्ष औसतन 250 अंडे देती हैं। यह खाकी कैंपबैल के बाद दूसरी अंडा उत्पादक नसल है। इस नसल की तीन प्रजातियां नीचे लिखे अनुसार हैं।
फॉन और वाईट रन्नर: इनकी गर्दन सफेद रंग की, हल्के पीले रंग की पीठ और कंधे, लंबा और संकुचित शरीर, पूरी छाती, शरीर पेंगुव्नि के आकार जैसा और पंख और पंजे संतरी लाल रंग के होते हैं। अलग अलग अवस्थाओं में चोंच का रंग भी अलग होता है जैसे प्रौढ़ नर बत्तख की चोंच पीले रंग की जो बाद की अवस्थाओं में हरे पीले रंग की हो जाती है और प्रौढ़ मादा बत्तख की चोंच पीले रंग की होती है जो बाद में हरे रंग की हो जाती है।
वाईट रन्नर: यह पूरे भागों में शुद्ध सफेद रंग की होती है। इसकी पीले रंग की चोंच और संतरी रंग के पंख और पंजे होते हैं।
पैंसिल्ड किस्म: इस किस्म के नर तांबे हरे रंग के और इनका सिर सफेद रंग का होता है। कोमल पीठ होती है और हल्के तांबे रंग की पूंछ होती है। इस किस्म की मादा बत्तख सफेद, मध्यम हल्के पीले रंग की होती हैं।

खाकी कैंपबैल का बत्तख- 
अंडा उत्पादन के लिए इसे सर्वोत्तम नसल के तौर पर जाना जाता है। यह नसल फॉन और वाईट रन्नर और मलार्ड बत्तखों के प्रजनन द्वारा विकसित की गई किस्म है। नर बत्तख की पीठ के निचले हिस्से का रंग भूरा तांबा, पूंछ परिवर्तित होती, हरे रंग की चोंच और गहरे संतरी रंग की टांगे और पंजे होते हैं। मादा बत्तख का सिर और गर्दन भूरे रंग की, खाकी रंग के पंख और भूरे रंग की टांगे और पंजे होते हैं। नर बत्तख का भार 2.2-2.4 किलो और मादा बत्तख का भार 2.0-2.2 किलो होता है। अंडे का भार 70 ग्राम होता है। यह नसल प्रति वर्ष 300 अंडों का उत्पादन करती है।

बतखों का आहार-
बत्तख के बच्चों का भोजन : 3 सप्ताह के बच्चों के भोजन में चयापचय ऊर्जा की 2700 किलो कैलोरी और 20 प्रतिशत प्रोटीन शामिल होनी चाहिए। 3 सप्ताह की उम्र के बाद प्रोटीन का स्तर 18 प्रतिशत होना चाहिए। बत्तख को एक वर्ष में 50-60 किलो भोजन की आवश्यकता होती है। 1 दर्जन अंडों और 2 किलो ब्रॉयलर बत्तख का उत्पादन करने के लिए 3 किलो भोजन की आवश्यकता होती है। 

बत्तख का भोजन : बत्तखें अत्याधिक खाने की लालची होती हैं और दिखने में आकर्षित होती हैं। भोजन के साथ-साथ, ये ज़मीन के कीड़ों और पानी में मौजूद हरी सामग्री भी खाती हैं। जब बत्तखों को शैड में लाया जाता है, तब उन्हें गीला भोजन दिया जाता है क्योंकि उनके लिए सूखा भोजन खाना मुश्किल होता है। भोजन को 3 मि.मी. गोलियों में बदला जाता है जो कि बत्तखों को भोजन के रूप में देना आसान होता है।

अंडे देने वाले बत्तखों का भोजन : अंडे देने वाले बत्तखों को भोजन में 16-18 प्रतिशत प्रोटीन की आवश्यकता होती है। मुख्यत: एक अंडे देने वाली बत्तख भोजन का 6-8 औंस खाती है लेकिन भोजन की मात्रा, बत्तख की नसल पर आधारित होती है। पूरा समय बत्तख को साफ और ताजा पानी मुहैया करवाना चाहिए। अतिरिक्त आहार के तौर पर फल, सब्जियां, मक्की के दाने, छोटे कीट दिए जा सकते हैं। कोशिश करें कि भोजन के साथ हमेशा पानी दें, यह बत्तख को भोजन आसानी से उपभोग करने में मदद करेगा।

नस्ल की देख रेख-
शैल्टर और देखभाल : इन्हें शैल्टर की जरूरत होती है जहां शांति हो और एकांत हो। यह अच्छी तरह से हवादार होना चाहिए और इसमें इतनी जगह होनी चाहिए कि बत्तख आसानी से अपने पंख फैला सके और अपनी देख रेख आसानी से कर सकें। बत्तख के बच्चों के लिए साफ और ताजा पानी हमेशा उपलब्ध होना जरूरी है। ताजे पानी के लिए पानी के फुव्वारों की सिफारिश की जाती है।

बत्तख के बच्चों की देखभाल : अंडे से बच्चे निकलने के बाद ब्रूडर की आवश्यकता होती है जिसमें 90 डिगरी फार्नाहाइट तापमान हो और फिर इस तापमान को हर रोज 5 डिगरी सेल्सियस कम किया जाता है। कुछ दिनों के बाद जब तापमान कमरे के तापमान जितना हो जाए, उसके बाद बच्चों को ब्रूडर से बाहर निकाला जाता है। बच्चों को समय के उचित अंतराल पर उचित भोजन देना जरूरी है और ब्रूडर में हमेशा साफ पानी उपलब्ध होना जरूरी है।

अंडे देने वाली बत्तखों की देखभाल : बत्तखों की अच्छी वृद्धि और अंडों के अच्छे उत्पादन के लिए बत्तखों की उचित देखभाल आवश्यक है। उचित समय पर मैश और चूरे को, भोजन में दें। अच्छी गुणवत्ता वाले अंडों के लिए भोजन में 18 प्रतिशत प्रोटीन की आवश्यकता होती है। मुख्यत: अंडे देने वाली बत्तख भोजन का 6-8 औंस खाती है।बत्तख या बत्तख के बच्चों को भोजन में ब्रैड ना दें।

सिफारिश किया गया टीकाकरण : 
समय के उचित अंतराल पर उचित टीकाकरण जरूरी है।
बत्तख के बच्चे जब 3-4 सप्ताह के हो जायें, तो उन्हें कोलेरा बीमारी से बचाने के लिए कोलेरा (पैसचुरेलोसिस) 1 मि.ली. का टीका लगवायें।
महामारी से बचाव के लिए 8-12 सप्ताह के बच्चों को बत्तख की महामारी का 1 मि.ली. का टीका लगवायें।

बीमारियां और रोकथाम
Duck virus hepatitis: यह बहुत ही संक्रामक बीमारी है जो कि हर्पस विषाणु के कारण होती है। यह मुख्यत: 1-28 दिन के बत्तख के बच्चों को होती है। इसके कारण आंतरिक ब्रीडिंग, गंभीर दस्त और अंतत: प्रभावित पक्षी की मृत्यु हो जाती है।
इलाज: इस बीमारी से संक्रमित होने पर इसका कोई इलाज नहीं है। इसकी रोकथाम के लिए प्रजनक बत्तख को डक हैपेटाइटिस का टीका लगवायें।

Duck plague (Duck Virus Enteritis): यह एक संक्रामक और अत्याधिक घातक रोग है। यह बीमारी प्रौढ़ और युवा दोनों बत्तखों में होती है। इसके लक्षण हैं आलस्य, हरे पीले रंग के दस्त और पंखों का झालरदार होना। इस बीमारी के कारण भोजन नली और आंतों पर धब्बे बन जाते हैं।
इलाज : डक प्लेग का इलाज करने के लिए एंटीन्यूटेड लाइव बत्तख वायरस एंटीसाइटिस का टीका लगवायें।

Salmonella: इस बीमारी के लक्षण हैं तनाव, आंखों का बंद होना, लंगड़ापन, पंखों का झालरदार होना आदि।
इलाज : साल्मोनेला बीमारी के इलाज के लिए अमोक्सीसिलिन का टीका लगवायें।

Aflatoxicosis: यह एक फंगस वाली बीमारी है। यह मुख्यत: उच्च नमी वाले दानों, जिनमें अल्फा टोक्सिन की मात्रा होती है का उपभोग करने के कारण होती है। इसके लक्षण हैं सुस्ती, वृद्धि का कम होना, पीलिया और प्रजनन शक्ति का कम होना है।
इलाज : भोजन में प्रोटीन, विटामिन की मात्रा और खनिज की मात्रा 1 प्रतिशत बढ़ा दें। अल्फाटॉक्सिकोसिस बीमारी के प्रभाव को जेंटियन वायलेट से भी कम किया जा सकता है।

Duck pox: इसके लक्षण वृद्धि का धीमा होना है। डक पॉक्स दो प्रकार का होता है गीला और सूखा प्रकार। सूखे पॉक्स में त्वचा पर मसे जैसे निशान पाये जाते हैं और ये दो सप्ताह में जख्म बन जाते हैं। गीले पॉक्स में चोंच के नज़दीक झुलसे हुए धब्बे दिखाई देते हैं।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए उपयुक्त टीकाकरण करवायें  या मच्छर भगाने वाले कीटनाशक की स्प्रे करें।

Riemerella anatipestifer infection: यह एक जीवाणु रोग है। इसके लक्षण हैं भार का कम होना, दस्त होना, जिसमें कई बार रक्त भी आता है, सिर हिलाना, गर्दन घुमाना और मृत्यु दर ज्यादा होना।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए एनरोफ्लोक्सएकिन, पैंसीलिन और सल्फोडायामैथोक्सिन- ओरमेटोप्रिम 0.04-0.08 प्रतिशत का टीका लगवायें।

Colibacillosis: यह एक आम संक्रमित बीमारी है जो E. coli के कारण होती है इसका मुख्य लक्षण बच्चों में कमी होना है।
इलाज : कोलीबेसीलोसिस बीमारी से बचाव के लिए भोजन में क्लोरोटेटरासाइलिन 0.04 प्रतिशत और सल्फाडिमैथोक्साइन 0.04-0.08 प्रतिशत दवाई दें।

बतख के साथ मछलीपालन और लाभ-
जिस तालाब में बतखों को तैरने के लिए छोड़ा जाता है, उस में अगर मछली का पालन किया जाए तो एकसाथ दोगुना लाभ लिया जा सकता है। दरअसल बतखों की वजह से तालाब की उर्वरा शक्ति में इजाफा हो जाता है। जब बतखें तालाब के पानी में तैरती हैं ,तो उन की बीट से मछलियों को प्रोटीनयुक्त आहार की आपूर्ति सीधे तौर पर हो जाती है जिस से मछलीपालक मछलियों के आहार के खर्च में 60 फीसदी की कमी ला सकते हैं।
                  
इस तरह बतखपालन से काफी लाभ कमाया जा सकता है। बतख के अंडों को बेचने में किसी तरह की परेशानी नहीं होती है। इन्हें दवाएं बनाने के लिए भी खरीदा जाता है। बतख न केवल लाभ देती है, बल्कि यह सफाई बनाए रखने में भी योगदान देती है| मात्र 5.6 बतखें ही 1 हेक्टेयर तालाब या आबादी के आसपास के मच्छरों के लारवों को खा जाती हैं। इस तरह बतखें न केवल लाभदायी होती हैं, बल्कि ये मनुष्य की सेहत के लिए भी कारगर होती हैं । बतखपालन का काम बेरोजगार युवाओं के लिए आय का अच्छा साधन साबित हो सकता है ।मुरगीपालन के मुकाबले बतखपालन कम जोखिम वाला होता है । बतख के मांस और अंडों के रोग प्रतिरोधी होने के कारण मुरगी के मुकाबले बतख की मांग अधिक है। बतख का मांस और अंडे प्रोटीन से भरपूर होते हैं ।बतखों में मुरगी के मुकाबले मृत्युदर बेहद कम है, इस का कारण बतखों का रोगरोधी होना भी है। अगर बतखपालन का काम बड़े पैमाने पर किया जाए तो यह बेहद लाभदायी साबित हो सकता है ।

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