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28 मार्च 1859 अमर बलिदानी नीलांबर और पीतांबर की आजादी के लडाई में गौरवशाली इतिहास

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की  सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

स्वतंत्र भारत में अगर जंग-ए-आजादी की चर्चा हो या फिर देश में स्वतंत्रता संबंधित कोई समारोह, पलामू की धरती पर जन्मे वीर शहीद नीलांबर और पीतांबर की चर्चा होगा। अमर शहीद नीलांबर-पीतांबर बड़े पराक्रमी धीर-वीर तथा गंभीर राष्ट्रभक्त थे। इनके पिता चेमु सिंह बड़े ही पराक्रमी जागीरदार थे। इनका बनाव कंपनी सरकार से कभी नहीं था, इसके बावजूद कंपनी सरकार ने इन्हें नाम मात्र के शुल्क पर दो जागीरें उपलब्ध करवा रखी थीं, ताकि खरवार जाति के पराक्रमी जागीदार को शांत रखा जा सके। 

नीलांबर-पीतांबर के नेतृत्व में पूरे पलामू में विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी।  विद्रोहियों को स्थानीय जागीरदारों तथा अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त था। कहा जाता है कि इनका संपर्क रांची के प्रमुख क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ शाही एवं पांडेय गणपत राय से बना रहता था, जिससे घबराकर कमिश्नर डालटन ने मद्रास इंफेंट्री के 140 सैनिक, रामगढ़ घुड़सवार की छोटी टुकड़ी तथा पिठौरिया परगणैत के नेतृत्व में उसके कुछ बंदुकची के साथ 16 जनवरी 1858  को पलामू के लिए कूच किया. वह 21 जनवरी को मनिका पहुंच कर ले। 

ग्राहम से मिला एवं दूसरे दिन पलामू किला से विद्रोह का संचालन कर रहे नीलांबर-पीतांबर पर चढ़ाई कर दी। सैन्य क्षमता अधिक होने के कारण नीलांबर-पीतांबर को पलामू किला छोड़ना पड़ा. किला छोड़ने के समय विद्रोही अपना तोप, भारी मात्रा में गोला बारूद, असबाव, रसद एवं मवेशी अपने साथ नहीं ले जा सके। ले. डाल्टन  को वहां बाबू कुंवर सिंह की एक चिट्ठी मिली। निलांबर एवं नकलौत मांझी के नाम लिखे इस पत्र में बाबू कुंवर सिंह ने अविलंब सहयोग करने की बात लिखी थी। इससे घबरा कर डाल्टन ने कुंवर सिंह से मदद मिलने से पूर्व ही विद्रोहियों को कुचल देने की रणनीति बनायी। कमिश्नर डाल्टन ने लेस्लीगंज में रुक कर युद्ध की तैयारी किया. उसने युद्ध के लिए गोला-बारूद तथा रसद जुटाये साथ ही क्षेत्रीय जागीरदारों को सैन्य सहायता उपलब्ध कराने का हुक्म दिया। बहुत सारे जागीरदार ने आदेश का पालन किया, परंतु पलामू राजा से संबंध रखनेवाले प्रमुख चेरो जागीरदार भवानी बक्स राय ने नीलांबर-पीतांबर का समर्थन करते हुए डाल्टन का आदेश नहीं माना। 10 फरवरी को घाटी के हरिनामाड़ गांव में विद्रोहियों द्वारा विरोधियों पर कार्रवाई करने की खबर पर डाल्टन ने ले. ग्राहम को रामगढ़ सेना एवं देव राजा के सैनिकों के साथ हरिनामाड़ भेजा।  

ग्राहम के पहुंचने से पूर्व ही विद्रोही वहां से निकल चुके थे. फिर भी तीन विद्रोही पकड़े गये, जिनमें दो विद्रोहियों को तत्काल फांसी दी गयी तथा एक विद्रोही को रास्ता बताने के लिए साथ ले लिया गया। डाल्टन ने विद्रोही बंदी के सहयोग से 13 फरवरी 1858 को नीलांबर-पीतांबर के जन्मभूमि में प्रवेश किया। नीलांबर-पीतांबर का दल कोयल नदी पार करते अंगरेजी सेना को देख चेमू गांव छोड़ जंगली टिलहों के पीछे छिपकर वार करने लगा। इस वार से रामगढ़ सेना का एक दफादार मारा गया। उसके बावजूद नीलांबर-पीतांबर को उस क्षेत्र से हटना पड़ा। दूसरी तरफ शाहपुर एवं बघमारा घाटी में डटे विद्रोहियों से भी अंगरेजी सेना का मुकाबला हुआ. यहां भी विद्रोहियों को भारी क्षति उठानी पड़ी। विद्रोहियों के पास से 1200 मवेशी एवं भारी मात्रा में रसद अंग्रेजी सेना ने जब्त किये परंतु नीलांबर-पीतांबर बच निकलने में कामयाब रहे, जिससे खिन्न होकर डाल्टन ने 12  फरवरी को चेमू-सेनया स्थित नीलांबर-पीतांबर के गढ़ सहित पूरे गांव में लूट-पाट कर सभी घरों को जला दिया। इनके संपत्ति, मवेशियों तथा जागीरों को जब्त कर लिया और लोहरदगा के तरफ बढ़ गया. जनवरी 1859 में कप्तान नेशन पलामू पहुंचा और ग्राहम के साथ विद्रोह को दबाना शुरू किया। तब तक ब्रिगेडियर डोग्लाज भी पलामू के विद्रोहियों के विरुद्ध मुहिम चला दी। शाहाबाद से आनेवाले विद्रोहियों को रोकने का काम कर्नल टर्नर को सौंपा गया। इस कार्रवाई से पलामू के जागीरदारों ने अंगरेजों से डर कर नीलांबर-पीतांबर को सहयोग देना बंद कर दिया। 

अग्रेज खरवार एवं चेरवों के बीच फूट डालने में भी सफल रहे। परिणाम स्वरूप नीलांबर-पीतांबर को अपना इलाका छोड़ना पड़ा। चेरो जाति से अलग हुए खरवार-भोगताओं पर 08 फरवरी से 23 फरवरी तक लगातार हमले किये गये, जिससे इनकी शक्ति समाप्त हो गयी। जासूसों की सूचना पर अग्रेजी सेना ने पलामू में आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर-पीतांबर को एक संबंधी के यहां से गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाये ही 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में फांसी दे दी। 

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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