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12 फरवरी 1883 अमर बलिदानी.पूर्वी भारत के महान क्रान्तिवीर शंम्भूधन फूंगलो जिन्होने अग्रेज मेजर बोयाड युद्व के दौरान मार डाला,जिनके नाम से ही अग्रेज घबडाते थे ..

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नोट -भारत की आजादी में शहीद हुए वीरांगना/जवानो के बारे में यदि आपके पास कोई जानकारी हो तो कृपया उपलब्ध कराने का कष्ट करे . जिसे प्रकाशित किया जा सके इस देश की युवा पीढ़ी कम से कम आजादी कैसे मिली ,कौन -कौन नायक थे यह जान सके । वैसे तो यह बहुत दुखद है कि भारत की आजादी में कुल कितने क्रान्तिकारी शहीद हुए इसकी जानकार भारत सरकार के पास उपलब्ध नही है। और न ही भारत सरकार देश की आजादी के दीवानो की सूची संकलन करने में रूचि दिखा रही जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है। 

 भारत में चारो तरफ स्वतंन्त्रता के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले अनेक वीर सपूत पैदा हुए। जिनमें शम्भूधन फूंगलो ग्राम लंकर उत्तर कछार असम में शम्भूधन फूंगलो का जन्म पूर्णिमा,1850 ई0में हुआ। डिमासा जाति की कासादी इनकी माता तथा देप्रन्दाओ फूंगलो पिता थे। शम्भूधन के पिता काम की तलाश में घूमते रहते थेै अन्ततः वे माहुर के पास सेमदिकर ग्राम में आकर बस गये। यही पर शम्भूधन का विवाह नासरदी के सथ हुआ। 
शंम्भूधन बचपन से ही शिवभक्त थे,एक बा रवह दियूंग नदी के किनारे कई दिनो तक ध्यानस्थ रहे। लोगो के शोर मचाने के उपरान्त उनकी आंख खुली और कहा कि मै भगवान शिव के दर्शन करके ही वापस लौटूगां। इसके बाद उनसे मिनपे के लिए लोग दूर-दूर से आने लगे। वह उनकी समस्या सुनते और उन्हे जडी बूंटीयो की दवा भी उपलब्ध कराते। उन दिनो पूर्वी भारत में अग्रेज अपनी जडे काफी जमा चुके थे। शम्भूधन को इनसे बहुत घृणा था। मम् पश्चात वे लोगो को दवा देने के साथ-साथ देश व धर्म पर आ रहे संकट के प्रति भी लोगो को सावधान करतेेेे रहते थे। धीरे-धीरे उनके विचारो से प्रभावित लोगो की संख्या में निरंन्तर बृद्धि होता गया।  एक समय डिमासा काछारी एक सबल राज्य था इसका राजधानी डिमापुर था। पहले अहोम राजाओ ने और फिर अग्रेजो ने 1832 ई0 में इसे नष्ट कर दिया। उस समय तुलाराम सेनापति राजा थे वे अग्रेजो के प्रबल विरोधी थे। 1854 ई0 में उनका देहांत हो गया इसके बाद अगेजो ने इस क्षेत्र में विद्रोह को दबाने के लिए राज्य को विभाजित कर दिया। 

शम्भूधन ने इससे नाराज होकर एक क्रान्तिकारी दल बनाया और उसमें उत्साही युवको को भर्ती करना शुरू कर दिया। माइबांग के रणवंडी देवी मन्दिर में इन्हे शंस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। इस प्रकार से प्रशिक्षित युवाओ को उत्तर काछार जिले में सभी तरफ नियुक्त कर दिया गया। इनके बढते लगातार गति विधियो से अग्रेजो के नाक में दम हो गया। उस समय वहां पर अग्रेज मेजर बोयाड नियुक्त था तथा वह बहुत क्रूर था। वह एक बार शम्भूधन को पकडने माबांग गया। परन्तु वहा पर युवको की तैयारी को देखकर वह डर के मारे वापस चला गया। इसके बाद उसने जनवरी 1882 में पूरी तैयारी के साथ माइबांग शिविर पर हमला बोल दिया जिसके जबाब में क्रान्तिकारी भी पहले से ही तैयार थे। मेजर बोयाड और सैकडो सैनिक मारे गये। इसके बाद क्षेत्र में लोग शम्भू को कमाण्डर और वीर शम्भू कहने लगे। इसके बाद शम्भूधन अग्रेजो के शिविरो एवं कार्यालयो पर लगातार हमले कर उन्हे नष्ट करने लगा। उनके आतंक से अग्रेज डर के मारे इधर-उधर भागते छुपने लगे। उत्तर काछार जिले की मुक्ति के बाद उन्होने दक्षिण काछार पर ध्यान लगाया और दार मिखाल ग्राम में शस्त्र निर्माण का प्ररम्भ शुरू कर दिया। कुछ समय बाद उन्होने भुवन पहाड पर अपना मुख्यालय बना लिया जहां पर एक प्रसिद्ध गुफा और शिवमन्दिर था। उनकी पत्नी भी इस आन्दोलन में सहयोग करना चाहती थी। अतः वह इसके निकट ग्राम इग्रालिंग में रहने लगी। शम्भूधन वहा पर कभी-कभी आने जाने लगे। 

इधर अग्रेज भी पूरी तैयारी के साथ उनके पीछे लगे हुए थे 12 फरवरी 1883 को  वह अपने घर में जब भोजन  कर रहे थे,तभी सैकडो अग्रेज सैनिको ने उन्हे घंर लिया। उस समय शम्भूधन निशस्त्र थे। अतः वे अग्रेजो से बचने के लिए जंगल की तरफ भागे परन्तु एक अग्रेज सैनिक द्वारा फेकी गयी खुखरी से उनका पांव बुरी तरह से जख्मी हो गया जिससे वे गंम्भीर रूप् से घायल हो गय। जब अत्यधिक रक्तस्राव होने लगा तो वे अचानक गिर पडे। उनके गिरते ही अग्रेज सैनिको ने उनका अंत कर दिया। इस प्रकार मात्र 33 वर्ष की अल्प आयु में ही वीर शंम्भूधन ने मातृभमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। 

विशेष यह भी जाने 
अभी थोड़े समय  पहले अहिंसा और बिना खड्ग बिना ढाल वाले नारों और गानों का बोलबाला था ! हर कोई केवल शांति के कबूतर और अहिंसा के चरखे आदि में व्यस्त था लेकिन उस समय कभी इतिहास में तैयारी हो रही थी एक बड़े आन्दोलन की ! इसमें तीर भी थी, तलवार भी थी , खड्ग और ढाल से ही लड़ा गया था ये युद्ध ! जी हाँ, नकली कलमकारों के अक्षम्य अपराध से विस्मृत कर दिए गये वीर बलिदानी  जानिये जिनका आज बलिदान दिवस ! आज़ादी का महाबिगुल फूंक चुके इन वीरो को नही दिया गया था इतिहास की पुस्तकों में स्थान !  किसी भी व्यक्ति के लिए अपने मुल्क पर मर मिटने की राह चुनने के लिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण चीज है- जज्बा या स्पिरिट। किसी व्यक्ति के क्रान्तिकारी बनने में बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि, अध्ययन, जीवन की समझ, तथा सामाजिक जीवन के आयाम व पहलू। लेकिन उपरोक्त सारी परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी अगर जज्बा  या स्पिरिट न हो तो कोई भी व्यक्ति क्रान्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता। देश के लिए मर मिटने का जज्बा ही वो ताकत है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के प्रति, साथ ही जनता के प्रति अगाध विश्वास और प्रेम से भरता है। आज की युवा पीढ़ी को भी अपने पूर्वजों और उनके क्रान्तिकारी जज्बे के विषय में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की चूहा दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि चूहा-दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि व्यक्ति इस दौड़ में जीतकर भी चूहा ही बना रहता है।  अर्थात इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत उसमें पैदा ही नहीं होती। और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है। जाहिरा तौर पर इसका एक कारण हमारा औपनिवेशिक अतीत भी है जिसमें दो सौ सालों की गुलामी ने स्वतंत्र चिन्तन और तर्कणा की जगह हमारे मस्तिष्क को दिमागी गुलामी की बेड़ियों से जकड़ दिया है। आज भी हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या शहादत दिवस पर ‘सोशल नेट्वर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सके। आज हम एक ऐसी ही क्रान्तिकारी साथी का जीवन परिचय दे रहे हैं जिन्होंने जनता के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में बेमिसाल कुर्बानी दी।    

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