रबी की दलहनी फसलों में मसूर की खेती का प्रमुख स्थान है| मसूर की खेती भारत की एक बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दलहनी फसल है| जिसकी खेती प्रायः भारत के हर राज्य में की जाती है| विश्व में इसकी खेती सर्वाधिक भारत में की जाती है| मसूर की खेती (Lentil farming) खेती असिंचित क्षेत्रों में धान के फसल के बाद की जाती है|
मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने में भी मसूर की खेती बहुत सहायक होती है| उन्नतशील उत्पादन तकनीको का प्रयोग करके मसूर की उपज में बढ़ोतरी की जा सकती है| इस लेख में मसूर की खेती वैज्ञानिक तकनीक से कैसे करें का उल्लेख किया गया है|
उपयुक्त जलवायु
मसूर की खेती की वानस्पतिक वृद्धि के लिए ठंडी जलवायु तथा पकने के समय गर्म जलवायु की आवश्यकता पड़ती है| सामान्यता: मसूर फसल के लिए 20 डिग्री से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है| इस प्रकार की जलवायु में मसूर की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है|
भूमि का चयन
फलीदार फसल होने के कारण मसूर की खेती सभी प्रकार की बलुई दोमट से लेकर काली दोमट भूमि में की जा सकती है| लेकिन इसकी अच्छी उपज के लिए रेतीली दोमट एवं दोमट भूमि सर्वोतम मानी जाती है| मिटटी का पी एच मान 4.5 से 8.2 होना चाहिए|
खेत की तैयारी
हमारे देश के विभिन्न भागों में मसूर फसल के लिए खेत की तैयारी अलग-अलग तरीकों से की जाती है, जैसे कुछ स्थानों में धान की खडी फसल में ही इसके बीज डाल दिए जाते हैं| लेकिन अच्छी पैदावार के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए| इसके पश्चात दो से तीन जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करने के पश्चात पाटा लगा कर खेत को समतल तैयार कर लेना चाहिए| खेत का भुरभुरा होना अति आवश्यक है| आखरी जुताई के समय 15 से 20 टन गली सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिटटी में मिला दें|
अनुमोदित उन्नत प्रजातियाँ
उकटा प्रतिरोधी प्रजातियाँ- पी एल- 02, वी एल मसूर- 129, वी एल- 133, वी एल- 154, वी एल- 125, पन्त मसूर (पी एल- 063), के एल बी- 303, पूसा वैभव (एल- 4147), आ- वी एल- 31 और आ पी एल- 316 प्रमुख है|
छोटे दाने वाली प्रजातियाँ- पन्त मसूर- 4, पूसा वैभव, पन्त मसूर- 406, आ पी एल- 406, पन्त मसूर- 639, डी पी एल- 32 पी एल- 5, पी ए- 6 और डब्लू बी एल- 77 आदि प्रमुख है|
बड़े दाने वाली प्रजातियाँ- डी पी एल- 62, सुभ्रता, जे एल- 3, नूरी (आई पी एल- 81), पी एल- 5, एल एच- 84-6, डी पी एल-15 (प्रिया), लेन्स- 4076, जे एल- 1, आई पी एल- 316, आई पी एल- 406 और पी एल- 7 आदि प्रमुख है|
क्षेत्रवार प्रजातियाँ
मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़- मलिका (के- 75), आई पी एल- 81 (नूरी), जे एल- 3, एल- 4076, आई पी एल- 406, आई पी एल- 316, डी पी एल- 62 (शेरी), आर वी एल- 31, पन्त मसूर- 8 आदि प्रमुख है|
उत्तरप्रदेश- पी एल- 639, मलिका, एन डी एल- 1, डी पी एल- 62, आई पी एल- 81, आई पी एल- 316, एल- 4076, एच यू एल- 57, डी पी एल-15 आदि मुख्य है|
बिहार- पंत एल- 406, पी एल- 639, मलिका (के- 75), एन डी एल- 2, डब्लू बी एल- 58, एच यू एल- 57, डब्लू बी एल- 77, अरूण (पी एल- 777-12) आदि प्रमुख है|
गुजरात- मलिका (के- 75), एल- 4076, जे एल- 3, आई पी एल- 81 (नूरी), पन्त मसूर- 8 आदि प्रमुख है|
हरियाणा- पंत एल- 639, पंत एल- 4, डी पी एल-15, सपना, एल- 4147, डी पी एल- 62 (शेरी), आई पी एल- 406, हरियाणा मसूर- 1 आदि प्रमुख है|
पंजाब- पी एल- 639, एल एल-147, एल एच- 84-8,एल- 4147, आई पी एल- 406, एल एल- 931, पी एल- 7 आदि प्रमुख है|
राजस्थान- आई पी एल- 406 (अंगूरी), पंत एल- 8 (पी एल- 063), डी पी एल- 62 आदि प्रमुख है|
महाराष्ट्र- जे एल- 3, आई पी एल- 81 (नूरी), पंत एल- 4, पन्त मसूर- 8, आई पी एल- 316 आदि प्रमुख है|
उत्तराखंड- वी एल मसूर- 103, पी एल- 5, वी एल- 507, पी एल- 6, वी एल- 129, वी एल मसूर- 514, वी एल-133, पी एल- 7, वी एल- 126 आदि प्रमुख है|
जम्मू और कश्मीर- वी एल- 507, एच यू एल- 57, पंत एल- 406, पी एल- 639, वी एल मसूर- 126, वी एल मसूर- 125 आदि प्रमुख है|
विशेषताएं और पैदावार
वी एल मसूर 1- इस मसूर की किस्म का काला छिलका, छोटा दाना, फसल पकने की अवधि 165 से 170 दिन, उकठा रोग प्रतिरोधी, उपज क्षमता 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर 4- इस मसूर की किस्म का काला छिलका, छोटा दाना, फसल पकने की अवधि 170 से 175 दिन, झुलसा तथा जड़ विगलन रोगों के प्रति सहिष्णुता, उपज क्षमता 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर 103- इस मसूर किस्म का भूरा छिलका, छोटे दाने, फसल की अवधि 170 से 175 दिन उकठा रोग रोधी एवं बीज गलन रोग हेतु सहनशील, उपज क्षमता 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर 125- इस किस्म का दाना काले रंग का, पौधे की ऊँचाई 30 से 32 सेंटीमीटर, फसल पकाव की अवधि 160 से 165 दिन तथा उकठा एव जड़ विगलन रोगों हेतु प्रतिरोधी और उपज क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर 126- इस किस्म का दाना काला, छोटा, पौधे की ऊँचाई 30 से 35 सेंटीमीटर, पकने की अवधि मध्यम किस्मों की 125 से 150 दिन और 195 से 205 दिन अधिक ऊँचाई वाली, उकठा व भूरा मोल्ड के प्रति अवरोधक, उपज क्षमता 12 से 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर- 129- इस किस्म के पौधे की ऊचाई 25 से 30 सेंटीमीटर, पकने की अवधि 145 से 150 दिन, छोटा दाना और रंग भूरा, जड़ विगलन तथा झुलसा रोग के प्रति सहनशील, उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों हेतु अनुमोदित और उपज लगभग 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
वी एल मसूर 507- इस मसूर की किस्म का मोटा दाना, रंग क्रीमी, भूरा व चपटा, पौधे की ऊचाई 45 से 48 सेंटीमीटर, पकने की अवधि 140 से 209 दिन, उकठा रोग हेतु प्रतिरोधी, उपज क्षमता 10 से 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
पन्त मसूर- 4- यह मसूर की किस्म पर्वतीय क्षेत्रों के अनुकूल, फसल की अवधि लगभग 160 से 170 दिन, छोटा दाना, उत्पादन क्षमता 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| यह प्रजाति उकठा रोग के लिये प्रतिरोधी भी पायी गयी है|
पन्त मसूर 5- यह मसूर की किस्म गेरूई, उकठा एवं झुलसा रोग के प्रति अवरोधी, समय से बुवाई एवं बड़े दाने वाली मसूर है| इस प्रजाति की अवधि पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 160 से 170 दिन एवं उपज क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| यह प्रजाति उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड हेतु संस्तुत है|
पन्त मसूर 7- यह मसूर की किस्म गेरूई, उकठा रोग के प्रति अवरोधी, बड़े दाने वाली, 165 से 170 दिन में पक जाती है और उपज क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
पन्त मसूर 8- यह गेरूई रोगों के प्रति अवरोधी, छोटे दाने वाली, यह लगभग 160 से 165 दिन में पकती है और इस प्रजाति की उपज क्षमता भी अच्छी है|
पन्त मसूर 9- उत्तराखण्ड के मैदानी एवं निचले घाटी क्षेत्रों हेतु उपयुक्त, छोटे आकार का दाना, दाने का रंग गहरा भूरा, यह प्रजाति गेरूई, उकठा रोग एवं फली छेदक कीट के लिए अवरोधी है| परिपक्वता अवधि लगभग 140 से 160 दिन है|
पूसा वैभव (एल 4147)- यह छोटे दाने वाली किस्म है| जो कि 130 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है| बुआई अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से मध्य नवम्बर तक कर लेनी चाहिए| इसकी औसत उपज क्षमता 17 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है|
पूसा शिवालिक (एल 4076)- बड़े आकार के दाने वाली किस्म है| जो 130 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है| इसकी उपज क्षमता 25 से 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं| इसकी बुआई का समय मध्य अक्टूबर से अंतिम सप्ताह नवम्बर तक है|
पंत मसूर 406- मसूर की यह किस्म 135 से 150 दिनों में पक कर तैयार होती है| इसकी उपज क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| इसकी बुआई का समय 25 अक्टूबर से 25 नवम्बर तक है| यह पूरे उत्तर के लिए उपयुक्त है| साथ ही यह किस्म पैरा बुआई के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है|
पंत मसूर 639- यह किस्म 135 से 140 दिनों में पक कर तैयार होती है| इसकी उपज क्षमता 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| इसकी बुआई का समय 25 अक्टूबर से नवम्बर तक है|
अरूण (पी एल 77-12)- यह प्रजाति लगभग 110 से 120 दिनों में पक कर तैयार होती हैं| इसकी उपज क्षमता 22 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है| इसकी बुआई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है| इसका दाना मध्यम बड़े आकार का होता है|
बुआई का समय
सामान्यतः मसूर 1 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक बोई जाती है| इसका बोने का समय क्षेत्र विशेष की जलवायु अनुसार भिन्न हो सकता है| जैसे उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में बुवाई का सर्वोत्तम समय अक्टूबर के अन्त में, जबकि उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र में नवम्बर का द्वितीय पखवाड़ा उपयुक्त होता है| क्योंकि इस समय यहाँ पर्याप्त नमी बुवाई के समय होती है| इस तरह मध्य क्षेत्र जहाँ नमी मुख्य रूकावट है, अग्रेती बुवाई मध्य अक्टूबर में उपयुक्त रहती है|
बीज की मात्रा
- छोटे दानों वाली किस्मों के लिए 40 से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा उचित मानी जाती है|
- बड़े दानों वाली प्रजातियों के लिए 55 से 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा उचित मानी जाती है|
- पानी भराव वाले क्षेत्रों के लिए 60 से 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा उचित मानी जाती है|
बीजशोधन
मसूर की खेती को बीज जनित फफूंदी रोगों से बचाव के लिए थीरम एवं कार्बेन्डाजिम (2:1) से 3 ग्राम या थीरम 3.0 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए| तत्पश्चात कीटों से बचाव के लिए बीजों को क्लोरोपाइीफास 20 ई सी, 8 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें|
जैविक बीजोपचार
मसूर की नये क्षेत्रों में बुआई करने पर बीज को राइजोबियम के प्रभावशाली स्ट्रेन से उपचारित करने पर 10 से 15 प्रतिशत की उपज वृद्धि होती है| 10 किलोग्राम मसूर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है| 100 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में घोलकर उबाल लें| घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें| इस कल्चर में 10 किलोग्राम बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें|
उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें व बीज उपचार दोपहर के बाद करें| राइजोबियम कल्चर न मिलने की स्थिति में उस खेत से जहाँ पिछले वर्ष मसूर की खेती की गयी हो 100 से 200 किलोग्राम मिट्टी खुरचकर बुआई के पूर्व खेत में मिला देने से राइजोबियम बैक्टिीरिया खेत में प्रवेश कर जाता है तथा अधिक वातावरणीय नत्रजन का स्थिरीकरण होने से उपज में वृद्धि होती है|
बुआई की विधि
बुआई देशी हल या सीड ड्रिल से पंक्तियों में करें| सामान्य दशा में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25 सेंटीमीटर तथा पंक्ति में पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर व देर से बुआई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेंटीमीटर ही रखें पौधे से पौधे की बीच की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर रखे| बीज 3 से 4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए| उतेरा विधि से बोआई करने हेतु कटाई से पूर्व ही धान की खड़ी फसल में अन्तिम सिंचाई के बाद बीज छिटक कर बुआई कर देते है|
इस विधि में खेत तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु अच्छी उपज लेने के लिए सामान्य बुआई की अपेक्षा 1.5 गुना अधिक बीज दर का प्रयोग करना चाहिए| पानी भराव वाले क्षेत्रों में वर्षा का पानी हटने के बाद, सीधे हल से बीज नाली बना कर बुआई की जा सकती है| गीली मिट्टी वाले क्षेत्रों में जहाँ हल चलाना संभव न हो बीज छींट कर बुआई कर सकते हैं| लेकिन अच्छी उपज के लिए मसूर की बुआई सीड ड्रिल या हल के पीछे पंक्तियों में ही करना चाहिए|
खाद और उर्वरक
मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 सेंटीमीटर गहराई व 5 सेंटीमीटर साइड में देना सर्वोत्तम रहता है| सामान्यतः मसूर की फसल को प्रति हैक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस एवं 20 किलोग्राम गंधक की आवश्यकता होती है| नत्रजन एवं फॉस्फोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 किलोग्राम डाइ अमोनियम फॉस्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर उत्तम परिणाम प्राप्त होते हैं|
गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्व
गंधक (सल्फर)- 20 किलोग्राम गंधक (154 किलोग्राम जिप्सम/फॉस्फो-जिप्सम या 22 किलोग्राम बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के समय प्रत्येक फसल के लिये देना पर्याप्त होता है| कमी ज्ञात होने पर लाल बलुई मृदाओं के लिए 40 किलोग्राम गंधक (300 किलोग्राम जिप्सम/फॉस्फो-जिप्सम या 44 किलोग्राम बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए|
बोरॉन- 1.6 किलोग्राम बोरॉन (16.0 किलोग्राम बोरेक्स या 11 किलोग्राम डाइसोडियम टेट्राबोरेट पेन्टाहाइड्रेट) प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के समय में प्रत्येक फसल में देना चाहिए|
सिंचाई प्रबन्धन
पानी भराव वाले क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में वर्षा न होने पर मसूर की खेती से अधिक उपज लेने के लिए बुआई के 40 से 45 दिन बाद व फली में दाना भरते समय सिंचाई करना लाभप्रद रहता है या फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई करें|
खरपतवार नियंत्रण
रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु बुआई के तुरन्त बाद (48 घंटे के अंदर) खरपतवारनाशी रसायन पेन्डीमिथलीन 30 ई सी का 0.75 से 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व (2.5 से 3 लीटर व्यापारिक मात्रा) प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव किया जाना चाहिए| बुआई से 25 से 30 दिन बाद एक निंराई करना पर्याप्त रहता है| यदि दूसरी निंराई की आवश्यकता हो तब बुवाई के 40 से 45 की फसल अवस्था पर करनी चाहिए| फसल बुवाई से 45 से 60 दिन तक खरपतवार मुक्त होनी चाहिए|
कीट एवं रोग रोकथाम
फलीछेदक- मसूर की खेती में इस कीट का प्रकोप होने पर प्रोफेनोफॉस 50 ई सी, 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या इमामेक्टिंन बेन्जोएट 5 एस जी 0.2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिडकाव करें|
माहू (एफिड)- इस कीट से बचाव के लिए प्रकोप आरम्भ होते ही डायमिथोएट 30 ई सी, 1.7 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या इमिडाक्लोरोप्रिड 17.8 एस एल की 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करे|
रतुआ (रस्ट)- समय से बुआई करें, रोगरोधी/सहनशील किस्मों जैसे- पन्त मसूर- 4, पन्त मसूर- 639, पन्त मसूर- 6, पन्त मसूर- 7, के एल एस- 218, आई पी एल- 406, डब्लू बी एल- 77, एल एल- 931, आई पी एल- 316, आदि से चुनाव करें| बचाव के लिए फसल पर मैंकोजेब 75 डब्लू पी कवकनाशी का 0.2 प्रतिशत (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल बनाकर बुवाई के 50 दिन बाद छिडकाव करें तथा दूसरा 10 से 12 दिन के बाद जरूरत के हिसाब से करें|
उकठा (विल्ट)- बुवाई से पूर्व बीज को थायरम व कार्बेन्डाजिम (2:1) 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करके ही बोनी करें, उकठा निरोधक एवं सहनशील किस्मों जैसे पन्त मसूर- 5, आई पी एल- 316, आर वी एल- 31, शेखर मसूर- 2, शेखर मसूर- 3 इत्यादि उगायें|
कटाई एवं मड़ाई
मसूर की खेती की जब 70 से 80 प्रतिशत फलियाँ पक जाएं, कटाई आरम्भ कर देना चाहिए| तत्पश्चात बण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं| 3 से 4 दिन सुखाने के पश्चात श्रेसर द्वारा भूसा से दाना अलग कर लेते हैं|
पैदावार
उपरोक्त उन्नत सस्य विधियों और नवीन किस्मों की सहायता से मसूर की खेती करने पर प्रति हेक्टेयर 15 से 25 क्विन्टल तक उपज प्राप्त की जा सकती है|
भंडारण
भंडारण के समय दानों में नमी 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए| भण्डार गृह में 2 गोली एल्युमिनियम फास्फाइड प्रति टन रखने से भण्डार को कीटों से सुरक्षा मिलती है| भंडारण के दौरान मसूर को अधिक नमी से बचाना चाहिए|
अधिक उत्पादन लेने हेतु आवश्यक बिंदू
- ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई तीन वर्ष में एक बार अवश्य करें|
- पोषक तत्वों की मात्रा मिटटी परीक्षण के आधार पर ही दें|
- मसूर की खेती हेतु बुवाई पूर्व बीजोपचार अवश्य करें|
- रस्ट (किट्ट) व उकठा रोगरोधी या सहनशील किस्में उगायें|
- पौध संरक्षण के लिये एकीकृत पौध संरक्षण के उपायों को अपनाना चाहिए|
- खरपतवार नियंत्रण अवश्य करें|
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