मथुरा उत्तर प्रदेश जिले में यमुना नदी के तट पर बसा एक सुंदर शहर है। यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा विश्व के प्राचीन शहरों में से एक मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। इस शहर का इतिहास बहुत ही पुराना है। यह शहर रामायण काल से पूर्व भी अस्तित्व में था। मध्यकाल में इस शहर को कई बार उजाड़ा, लुटा और विध्वंस किया गया परंतु यह शहर फिर से कई बार खड़ा हो गया। आओ जानते हैं यहां के श्रीकृष्ण जन्मभूमि की खास 5 बातें।
1. पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। हरिवंश और विष्णु पुराण में मथुरा के विलास-वैभव का वर्णन मिलता है। यह नगरी श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5133 वर्ष पूर्व) को भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। उस काल में मथुरा पर कंस का राज था। कंस के बाद मथुरा पर राजा उग्रसेन ने शासन किया। मथुरा के आसपास वृंदावन, गोवर्धन, गोकुल, बरसाना आदि कई ऐसे गांव, कस्बे और शहर बसे हैं जो कि श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े हुए हैं।
3. कथाओं के अनुसार उनके प्रपौत्र व्रजनाभ ने ही सर्वप्रथम उनकी स्मृति में केशवदेव मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद यह मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। काल के थपेड़ों ने मंदिर की स्थिति खराब बना दी। करीब 400 साल बाद गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने उसी स्थान पर भव्य मंदिर बनवाया। इसका वर्णन भारत यात्रा पर आए चीनी यात्रियों फाह्यान और ह्वेनसांग ने भी किया है।
4. तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मेगस्थनीज ने मथुरा को मेथोरा नाम नाम से संबोधित करके इसका उल्लेख किया है। 180 ईसा पूर्व और 100 ईसा पूर्व के बीच कुछ समय के लिए मथुरा पर ग्रीक के शासकों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में नियंत्रण बनाया रखा। यवनराज्य शिलालेख के अनुसार 70 ईसा पूर्व तक यह निरयंत्रण बना रहा। फिर इस पर सिथियन लोगों ने शासन किया। फिर राजा विक्रमादित्य के बाद यह क्षेत्र कुशाण और हूणों के शासन में रहा। राजा हर्षवर्धन के शासन तक यह शहर सुरक्षित रहा। इसे ज्यादा नुकमसान नहीं पहुंचा।
5. ईस्वी सन् 1017-18 में महमूद गजनवी ने मथुरा के समस्त मंदिर तुड़वा दिए थे, लेकिन उसके लौटते ही मंदिर बन गए। मथुरा के मंदिरों के टूटने और बनने का सिलसिला भी कई बार चला। बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया। यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था, जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया। इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था। लेकिन इसे भी मुस्लिम शासकों ने सन् 1669 ईस्वी में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक भव्य ईदगाह बनवा दी गई, जो कि आज भी विद्यमान है। इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
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