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स्नेहमयी - जगदीश लच्छाणी (सिंधी कहानी)

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आज मेरे इम्तिहान का नतीजा ज़ाहिर हुआ है और मैं अच्छे अंकों से पास हुआ हूँ। इस पर मैं बेहद ख़ुश हूँ, इम्तिहान की कामयाबी पर नहीं बल्कि यह ख़ुशख़बरी तुम तक पहुँचाने के लिए। मेरी सफ़लता, मुझसे ज़्यादा, तुम्हारी सफ़लता है। तुम्हारी याद मेरे दिल में बसी हुई है।

आज तुम्हारी सूरत मेरी आँखों के आगे घूम रही है। हालाँकि जिस्मानी तौर पर तुम मुझसे काफ़ी दूर हो, इतनी दूर, जहाँ से न तुम मेरी आवाज़ सुन सकोगी और न ही मैं तुम्हारी सुन सकता हूँ !

मुझे पता है, उदास होना तुम्हारे स्वभाव में ही नहीं है, क्योंकि ‘भूत’ तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रखता। विगतकाल के बाब को तुम बेकार और बेकशिश समझकर, बिलकुल लापरवाही से पलट देती हो। तुम्हारे लिये वर्तमान ही सब कुछ है और वह भी तब तक, जब तक वह वर्तमान ही है, भूतकाल में नहीं बदला है। ‘भूत’ के साथ वह भी, तुम्हारे लिये महत्वहीन बन जाता है। फिर चाहे वह कितना भी अहमियत भरा क्यों न हो? और भविष्य में तो तुम्हारा विश्वास है ही नहीं ! अगर है भी, तो सिर्फ़ इतना ही कि भविष्य वर्तमान को निगलकर भूतकाल को जन्म देता है, बस ! इससे ज़्यादा तुम ज़माने को कोई भी अहमियत नहीं देती। शायद यही कारण है कि कोई भी ग़म तुम्हारी फ़ितरत में दाख़िल नहीं हो सकता।

एक तरफ़ तुम हो बेफ़िक्र, बिना किसी ग़म के एक स्वच्छ, निर्मल नदी की भाँति हमेशा बहती हुई, जो राह के छोटे-बड़े पत्थरों से मिलकर अपनी ही खुशी की ख़ुमारी में गाती जाती है। दूसरी तरफ़ मैं हूँ, एक भारी पहाड़ी चट्टान की तरह, जो खिसकने पर अपने आसपास की चट्टानों को भी हिला जाता हूँ। तुम्हारे पास ख़ुशी ही ख़ुशी है, मेरे पास ग़म ही ग़म है। तुम्हारे पास कहकहे हैं तो मेरे पास सिसकियाँ हैं। तुम्हारे पास बेफ़िक्री है, मेरे पास फ़िक्र है। यह सब जानने के बाद क्या तुम बता सकोगी कि एक ग़म ख़ुशी के पीछे क्यों भागता है? एक सिसकी, क़हक़हे में क्यों बदलना चाहती है? एक फ़िक्र, बेफ़िक्री की उपासना क्यों करती है? इन सवालों के बारे में सोचते-सोचते, जब कभी मैं बेहद दुखी हो उठता हूँ, तब मेरा ग़म और भी बढ़ जाता है, मेरी सिसकी फ़रियाद में क्यों बदल जाती है?

अरे देखो ना मैं भी कितना बेतुका इन्सान हूँ, मैंने तुम्हें सुनाना क्या चाहा और सुना क्या बैठा? हाँ ! तो मैंने कहा था कि आज मैं इम्तिहान में पास हुआ हूँ। जब मैं इम्तिहान देकर आया था, तब तुमने कहा था - ‘पास होने पर मिठाई खिलाओगे न?’

याद है, मैंने तुम्हें कौन-सा उत्तर दिया था? ‘मैं तो खिलाऊँगा ही, पर तुम्हें भी मिठाई खिलानी पड़ेगी।’

तुमने मेरी इस बात का अर्थ न समझते हुए कहा था - ‘वाह ! पास तुम हो जाओ और मिठाई मैं खिलाऊँ?’

लेकिन मैं जानता था कि अगर मैं पास हुआ भी तो सिर्फ़ तुम्हारे कठिन परिश्रम के कारण ! पर उस समय मैंने ज़्यादा कुछ न कहकर फ़क़त एक ठहाका लगाया था इसलिए मैं तुमसे मिठाई की माँग कर रहा हूँ ! क्यों, अब तो तुम मिठाई खिलाने का कारण नहीं पूछोगी ना?’

तुम्हें याद होगा, जब मैं इम्तहान देने के लिए तुम्हारे घर आ रहा था, तब मेरे दिल में नाउम्मीदी थी। मेरे सिर पर पहाड़ जैसा तनाव था। मैं नाउम्मीदी और तनाव के बीच में दबता जा रहा था। ऐसी पीड़ादायक मानसिक अवस्था में, किताब छूने का ख़याल भी मुझे छू नहीं पाता था। इस हालत से गुज़रते, मुझे यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि मैं फेल हो जाऊँगा।

मगर भविष्य हमेशा अस्पष्ट होता है। कभी-कभी उसकी धुंधली झलक देखकर ग़लत अंदाज़ भी लगाया जा सकता है, और मेरा अंदाज़ा, जिसे सिर्फ़ अंदाज़ा ही नहीं बल्कि एक विश्वास भी कह सकते हैं, ग़लत ही निकला, या मैं यह कहूँ कि तुमने उसे ग़लत सिद्ध कर दिया। अपने पास होने के इस सम्मान का हक़ मैं सिर्फ़ तुम्हें ही देना चाहता हूँ, क्योंकि तुम्हारे उत्साह और परिश्रम ने मुझे पास होने, न सिर्फ़ पास होने में, पर नाउम्मीदी की गहराइयों में से भी बाहर निकलने में आज मदद की है। फिर कहो, भला मैं इतना एहसान-फ़रामोश कैसे हो सकता हूँ कि तुम्हारा आभार भी न मानूँ?

तुम्हारे घर में और भी तो सदस्य थे। लेकिन उन सबसे ज़्यादा, तुमने ही मेरा ख़याल रखा। वह बराबर मेरे दोस्त का घर था, पर मेरा घर तो न था। और फिर तुम्हारा मेरा रिश्ता भी क्या था? तुम थीं मेरे दोस्त की बहन ! मेरी कुछ भी नहीं ! फिर भी तुम्हारा मेरे लिये इतना स्नेह, इतनी ख़ातिरदारी ! क्या मैं यह भुला पाऊँगा? तुम्हें शायद कुछ भी याद न हो, क्योंकि तुम कभी भी गुज़रे हुए वक़्त की ओर मुड़कर देखती ही नहीं !

वैसे रोज़ सुबह तुम्हारे उठने का नियम आठ बजे था। लेकिन मेरे वहाँ आकर रहने के कारण, तुम्हें अपनी नींद में दो घंटे की कटौती करनी पड़ी। रोज़ जल्दी उठकर तुम मेरे लिये चाय तैयार करती थीं। फिर स्नान के लिये गर्म पानी रखती और जैसे ही मैं स्नान करके आता, मेरे इस्तरी किये हुए कपड़े टेबल पर पहले ही तैयार पड़े रहते। कभी-कभी मैं दिल में महसूस करता था कि मैं तुम्हें बहुत तक़लीफ़ दे रहा हूँ। एक दो बार तुमसे कहा भी कि मेरी इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन तुमने मेरा वह कहा सुना अनसुना कर दिया। मेरी ख़ातिरदारी में किसी तरह की कमी नहीं रहने दी, पहले दिन से ही तुम जैसे मेरे हवाले हो गई !

हर वक़्त तुम्हारे चेहरे की मुस्कराहट मुझे ख़ुशी देती थी। तुम्हारी बातचीत मुझे बहलाए रखती थी। बेबाकी वाला तुम्हारा मिलनसार स्वभाव, मेरी शख़्सियत पर छा गया। धीरे-धीरे ‘भूत’ धुंधला हो गया, जैसे तुम्हारे साथ ने मुझे ‘भूत’ की वीरान घाटियों में भटकने से बचा लिया। मैं दिल लगाकर खूब पढ़ने लगा। अपनी मेहनत का फल तुम्हें ख़ुश करने के लिये तुम्हारे आगे भेंट रखना चाहता था।

जब-जब भी मैं कहता था कि मैं फेल हो जाऊंगा, तब तुम कहती थी ‘फेल’ ही होना था तो फ़ासला तय करके क्यों यहाँ आए हो? मैं जानती हूँ कि तुम अपने जीवन से निराश हो चुके हो। लेकिन आशा नाम की कोई चीज़ भी तो दुनिया में है, यह तुम क्यों भुला देते हो? तुम्हें एक चित होकर पढ़ना ही पड़ेगा और पास होना ही पड़ेगा, नहीं तो मैं यही समझूँगी कि तुम पढ़ाई से किनारा कर रहे हो, और जान-बूझकर फेल होना चाहते हो।

तुम्हारे उन लफ़़्जों ने सचमुच मुझपर जादुई असर किया। इस तरह जैसे किसी थके हारे मुसाफ़िर के चेहरे पर शीतल जल की बूँदे करतीं हैं !

इस तरह तुम्हारे स्नेह ने मेरे लिये बयाबान में पानी का काम किया, उस ढाढ़स के कारण ही मैं इतना बड़ा पहाड़ पार करके मंजिल पर पहुँचा हूँ।

आज अपनी कामियाबी के बारे में सोचते हुए मन में ख़याल आता है कि कैसे संयोग से हमारा मिलन हुआ, मुझे पंद्रह दिन तुम्हारा स्नेहमयी साथ मिला और फिर हम एक दूसरे से जुदा हो गए। मेरे इम्तहान पूरे हो गए और मैं अपने घर लौट आया।

पर आज तक तुम्हारी याद मुझे बार-बार आती रहती है। शायद तुम्हें भी आती हो! यह मैं कैसे कहूँ? क्योंकि मैं जानता हूँ कि तुम अपने ‘भूत’ की तरफ़ कभी नहीं देखती! लेकिन क्या मैं तुम्हारे लिये केवल माज़ी ही हूँ, क्यों? तुमने ही मुझे जीवन में आशावादी बनकर जीना सिखाया है, इसलिए मैं दिल में सोच रहा हूँ, मैं कोई भूतकाल तो नहीं हूँ। मैं तो एक संवेदनशील इन्सान हूँ जो मैं माज़ी में भी था, वर्तमान में भी हूँ और शायद भूतकाल में भी रहूँ।

(रूपांतरकार : देवी नागरानी)

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