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स्नान (व्यंग्य)- हरिशंकर परसाई

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गंगा स्नान ही नही, साधारण स्नान के बारे में भी बड़ा अंधविश्वास है । जैसे यही, की रोज़ नहाना चाहिए - गर्मी हो या ठंड । क्यों नहाना चाहिए ? गर्मी में नहाना तो माफ़ किया जा सकता है, पर ठंड में रोज़ नहाना बिल्कुल प्रकृतिविरुद्ध है । जिन्हें ईश्वर पर विश्वास है, वे यह क्यों नही सोचते की यदि शीतऋतु भी रोज़ नहाने की होती, तो वह इतनी ठंड क्यूँ पैदा करता ? शीतऋतु उसने नहाने के लिए बनाई ही नहीं है, लेकिन आप 'सी-सी' करते जा रहे और रोज़ नहा रहे हैं । और मुझे यह आजतक समझ में नही आया की नहाने और खाने का क्या संबंध है? कोई दोस्त इतवार को सुबह आ जाता है और दोपहर तक बैठता है, मैं उससे भोजन के लिए कहता हूँ, तो कह देता है - अभी तो नहाया नही है । कितनी लचर दलील है ! नहाया नही है, तो खाना क्यों नही खाएँगे? नहाते शरीर से हैं पर खाते तो सिर्फ़ मुँह से हैं !

रोज़ नहाने के पक्ष में तरह तरह के तर्क दिए जाते हैं ; जैसे यह की स्फूर्ति आती है, दिमाग़ साफ होता है, काम में मन लगता है, आदि । यह सब झूठ है । रोज़ नहाने वाले कई मूर्ख मैने भी देखे हैं और आलसी ऐसे की आज नहाकार सोए, तो कल नहाने के वक़्त उठेंगे । प्रतिभा का तो नहाने से उल्टा संबंध है । जो अधीक नहाएगा, उसकी प्रतिभा धुलती जाएगी । एक प्रमाण प्रयाप्त होगा -

कालिदास ने अपनी काव्य-रचना कहाँ की ? उज्जैन में ? हरगिज़ नहीं । मैने दो दिन उज्जैन में रहकर देख लिया है । वहाँ बेहद ख़टमल हैं । मालवी वैद्य और ख़टमल प्रसिद्ध हैं । कालिदास रात भर खटमलो से लड़ते होंगे । उज्जैनवाले यह तर्क करें की विक्रमादित्य के प्रत्ताप के कारण ख़टमल उसके राज्य में नही होते थे, तो मैं मान नही सकता । ख़टमल पर चक्रवर्ती का वश नही चलता । खुदा की खाट में ख़टमल भी होते हैं । सिद्ध हुआ की कालिदास ने उज्जैन में काव्य नहीं लिखा बल्कि कश्मीर में लिखा

कालिदास ने सारा काव्य कश्मीर में लिखा । उज्जैन में तो वे अच्छे अक्षरों की पांडुलिपि बनाते रहे । उज्जैनवाले हर साल कालिदास की प्रेस कॉपी बनाने की स्मृति में जलसा करते हैं । कालिदास का केस सिद्ध करता है की स्नान नही करने से प्रतिभा का विकास होता है । बहुत लोगों को इस वैज्ञानिक तथ्य का ज्ञान नही है की स्नान करने से त्वचा के पोर खुल जाते हैं और उन पोरों से पसीने के साथ प्रतिभा के कण भी निकलते हैं ।

मेरे एक मित्र रोज़ नहाना बुर्जुआ प्रवृत्ति मानते हैं । वे इसे सामंती सभ्यता का चिन्ह मानते हैं । सामन्तो को कोई काम तो करना नहीं पड़ता, इसलिए वो दिन का बहुत बड़ा भाग स्नान करने में व्यतीत करते थे । स्नान करने की कला और स्नान-प्रसाधनों का जितना विकास सामंती युग में, उतना किसी अन्य काल में नही हुआ । उन्हें बड़ा दुख होता है की आज मध्यवर्ग इस तरह की बुर्जुआ मान्यताओं का पोषक है । सर्वहारा के पास स्नान में बर्बाद करने के लिए वक़्त नही है । सर्वहारा के आंदोलन में इसलिए तो अपेक्षित तीव्रता नहीं आ रही है की उनके नेता मध्यमवर्ग के हैं, जो रोज़ नहाते हैं ।

मैने ऐसे लोग देखे हैं जो केवल इस कारण आकड़े फिरते हैं की वे रोज़ दो बार नहाते हैं । इसे वो बड़ी उपलब्धि मानते हैं और इससे जीवन की सार्थकता का अनुभव करते हैं । बड़े गर्व से कहते हैं - 'भैया, कोई भी मौसम हो, हम तो दो बार नहाते हैं । और ठंडे पानी से ।' स्नान के अनुभव को वे बड़े महत्व से सुनाते हैं - 'बस, पहला लोटा ऊडेलो, तभी ज़रा ठंड लगती है । इसके बाद ठंड लगती ही नहीं । गर्मी लगती है । फिर दिन भर बड़ा अच्छा लगता है ।' मैं नही जानता, अपने शरीर की सारी उष्णता ठंडे पानी से लड़ने के लिए रोज़ बाहर निकालना कहाँ तक अच्छा है । इस उष्णता से कोई उपयोगी काम किया जा सकता है ।

पिछले महीने जब कड़ी ठंड पड़ रही थी, मुझे एक परदेसी मित्र मिला । वह किसी के यहाँ तीन-चार दिन के लिए मेहमान था । स्नान के बारे में बात करते हुए उसने बताया - 'आज सुबह मैं नहाने पहुँचा, तो देखा की सेमेंट के हौज़ में पानी भरा है; रात भर का ठंडा पानी । पहले तो जी हिचका । पर फिर मैने लोटा भरकर डाल ही लिया । पाँच मिनिट तक देह सुन्न रही ।'

मुझे सुनकर ही कंपकंपी आ गयी । उसके पास बैठना मेरे लिए असह्य हो गया । मुझे ज्यों ही ख्याल आता की इसने सवेरे हौज़ के पानी से नहाया है, मैं ठिठुरने लगता । उसके साथ रिक्शे में बैठा, तो एक कोने में सिकुड गया । कहीं उसके शरीर से मेरा शरीर स्पर्श ना कर ले । कभी रिक्शे की हलचल के कारण उसके कपड़े भी छू जाते तो मेरी दंतोडी बँध जाती । वह तीन दिन रहा और मैं उससे कतराता रहा । जब वह जाने लगा तो मैने उससे कहा - "बंधु, तुममे गजब की इच्छा-शक्ति है । ऐसी दृढ़ इच्छा-शक्ति से तुम कोई बड़ा काम कर सकते थे । तुम गौरीशंकर की चोटी पर चढ़ सकते थे ; तुम कोई अविष्कार कर सकते थे । पर तुम उसका उपयोग ठंडे पानी से नहाने में कर रहे हो ; अपनी शक्ति को बर्बाद कर रहे हो । आगामी पीढ़ियाँ तुम जैसो को कोसेंगी । कहेंगी, उस ज़माने में, जब देश का निर्माण हो रहा था, तब कितने ही ऐसे तरुण थे, जो अपनी शक्ति का उपयोग ठंडे पानी से नहाने में कर रहे थे । इतिहास कभी तुम्हे माफ़ नहीं करेगा । आगामी पीढ़ियाँ तुम्हारे नाम को रोएंगी ।"

वह हंसता रहा । उसे सिर धुनना था । कुसंस्कारों की जड़े बड़ी गहरी होती हैं । रवीन्द्रनाथ ने ठीक ही कहा है की ज्ञान की निर्झरनी अंध-विश्वासों की मरूभूमि में खो गयी है । इस लेख को पढ़कर यदि एक पाठक ने व्यर्थ स्नान में समय नष्ट न करने का निश्चय किया, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूंगा ।

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