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रागी (मडुआ) की खेती कैसे करें ?

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इसे फिंगर बाजरा, अफ्रीकन रागी, लाल बाजरा आदि के नाम से भी जाना जाता है| यह सबसे पुरानी खाने वाली और पहली अनाज की फसल है, जो घरेलू उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाती है| इसका असली मूल स्थान इथिओपियन उच्च ज़मीनें है और यह भारत में लगभग 4000 साल पहले लायी गई थी| इसे शुष्क मौसम में उगाया जा सकता है| यह गंभीर सूखे को भी सहन कर सकती है और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी उगाई जा सकती है| सारे बाजरे वाली फसलों में से यह सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है| अन्य अनाज और बाजरे वाली फसलों के मुकाबले इसमें प्रोटीन और खनिजों की मात्रा ज्यादा होती है| इसमें महत्वपूर्ण  अमीनो एसिडभी पाया जाता है| इसमें कैल्शियम(344 मि.ग्रा.) और पोटाशियम(408 मि.ग्रा.) की भरपूर मात्रा होती है| कम हीमोग्लोबिन वाले व्यक्ति  के लिए यह बहुत लाभदायक है, क्योंकि इसमें लोहे के तत्वों की काफी मात्रा होती है|

कर्नाटक, तामिलनाडू, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश (पहाड़ी क्षेत्र) भारत के मुख्य रागी उगाने वाले राज्य हैं।

रागी की खेती मोटे अनाज के रूप में की जाती है. रागी मुख्य रूप से अफ्रीका और एशिया महाद्वीप में उगाई जाती है. जिसको मडुआ, अफ्रीकन रागी, फिंगर बाजरा और लाल बाजरा के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौधे पूरे साल पैदावार देने में सक्षम होते हैं. इसके पौधे सामान्य तौर पर एक से डेढ़ मीटर तक की ऊंचाई के पाए जाते हैं. इसके दानो में खनिज पदार्थों की मात्रा बाकी अनाज फसलों से ज्यादा पाई जाती है.

इसके दानो का इस्तेमाल खाने में कई तरह से किया जाता है. इसके दानो को पीसकर आटा बनाया जाता है. जिससे मोटी डबल रोटी, साधारण रोटी और  डोसा बनाया जाता है. इसके दानो को उबालकर भी खाया जाता है. इसके अलावा इसका इस्तेमाल शराब बनाने में भी किया जाता हैं.

रागी की खेती के लिए शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. भारत में ज्यादातर जगहों पर इसे खरीफ की फसल के रूप में उगाते हैं. इसके पौधों को बारिश की ज्यादा आवश्यकता नही होती. इसके पौधों को समुद्र तल से 2000 मीटर तक की ऊंचाई पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता हैं. भारत में इसकी खेती के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दक्षिणी पूर्वी राज्यों में की जाती है. इसकी खेती किसानों के लिए अधिक लाभ देने वाली मानी जाती हैं.

अगर आप भी इसकी खेती कर अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी
रागी की खेती कई तरह की उपजाऊ और कार्बनिक पदार्थों से भरपूर मिटटी में कीजा सकती है. लेकिन इसके अच्छे उत्पादन के लिए बलुई दोमट मिट्टी को सबसे उपयुक्त मानी जाती है. इसकी खेती के लिए भूमि में जलभराव नही होना चाहिए. क्योंकि जलभराव होने की वजह से इसके पौधे खराब हो जाते हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 8 के बीच होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

रागी की खेती की लिए शुष्क और आद्र शुष्क जलवायु सबसे उपयुक्त होती है. भारत में इसकी खेती गर्मियों के मौसम में खरीफ की फसल के साथ की जाती है. इस की खेती के लिए गर्मी का मौसम सबसे उपयुक्त होता है. खरीफ की फसल होने के कारण इसे सर्दियों के शुरू होने से पहले ही काट लिया जाता है. इस कारण सर्दी का प्रभाव इस पर देखने को नही मिलता. इसकी खेती के लिए सामान्य बारिश की जरूरत होती है. अधिक बारिश इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही होती.

रागी के पौधे गर्मियों के मौसम में अधिकतम 35 डिग्री तापमान पर आसानी से विकास कर लेते हैं. लेकिन शुरुआत में बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 से 22 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 30 डिग्री के आसपास के तापमान को उपयुक्त माना जाता है.

उन्नत किस्में

जे एन आर 852
रागी की इस किस्म के पौधे 110 से 115 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर कुल उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. रागी की इस किस्म को सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में उगाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे कई तरह के रोग के प्रतिकूल होते हैं. इसका पौधा लगभग एक मीटर की ऊंचाई का होता है.

जी पी यू 45
रागी की ये एक जल्द पककर तैयार होने वाली किस्म है. इन किस्म के पौधे 100 दिन के आसपास पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 30 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे हरे रंग के होते हैं. जिनकी पत्तियां मुड़ी हुई होती हैं. इस किस्म के पौधों पर पत्ती झुलसा का रोग देखने को नही मिलता.

चिलिका
रागी की इस किस्म को ओ ई बी 10 के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधों की ऊंचाई अधिक पाई जाती है. और पत्तियों की चौड़ाई भी अधिक पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 120 से 125 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं.

जे एन आर 1008
रागी की इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 100 दिन बाद ही पककर तैयार हो जाते हैं. रागी की इस किस्म को मध्य भारत में अधिक उगाया जाता है. इसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 22 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के दानो का रंग गुलाबी पाया जाता हैं.

पी इ एस 400
रागी की ये एक बहुत जल्द पककर तैयार होने वाली किस्म हैं. जिसके पौधे बीज रोपाई के 100 दिन पहले ही पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों की उंचाई तीन फिट के आसपास पाई जाता है. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे पर फफूंदी जनित रोग देखने को कम मिलते हैं.

वी एल 149
रागी की इस किस्म को अगेती पैदावार लेने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 95 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधे सामने लम्बाई वाले होते हैं. इसके दाने हल्के भूरे दिखाई देते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 30 क्विंटल तक पाया जाता है.

आर एच 374
रागी की इस किस्म के पौधे मध्य समय में पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 22 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधों की लम्बाई तीन फिट से ज्यादा पाई जाती है. इसके पौधे कीट रोगों के प्रतिकूल पाए जाते हैं.

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक और उत्तम पैदावार लेने के लिए उगाया जाता है. जिनमें जे एन आर 981, भैरवी, शुव्रा, अक्षय, पी आर 202, एम आर 374, जे एन आर 852 और के एम 65 जैसी काफी किस्में मौजूद हैं.

खेत की तैयारी

रागी की रोपाई के लिए भुरभुरी मिट्टी को अच्छा माना जाता है. क्योंकि भुरभुरी मिट्टी में इसके बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है. रागी की खेती के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के दौरान खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद कुछ दिन खेत को खुला छोड़ दें. ताकि सूर्य की धूप से मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट नष्ट हो जाएं. खेत को खुला छोड़ने के बाद खेत में जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद को डालकर उन्हें अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर दें.

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद जब जमीन की ऊपरी सतह हल्की सुखी हुई दिखाई देने लगे तब फिर से खेत की जुताई कर दें. उसके बाद खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल कर दे. ताकि बारिश के मौसम में जलभराव जैसी समस्या का सामना ना करना पड़ें.

बीज की मात्रा और उपचार
रागी की रोपाई के लिए बीज की मात्रा बुवाई की विधि पर निर्भर करती हैं. ड्रिल विधि से रोपाई के दौरान प्रति हेक्टेयर 10 से 12 किलो बीज की जरूरत होती है. जबकि छिडकाव विधि से रोपाई के दौरान लगभग 15 किलो बीज की जरूरत पड़ती हैं. इसके बीज को खेत के लगाने से पहले उसे उपचारित कर लेना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए थिरम, बाविस्टीन या कैप्टन दावा का इस्तेमाल किसान भाई कर सकता है.

बीज रोपाई का तरीका और टाइम
रागी के बीजों की रोपाई छिडकाव और ड्रिल दोनों तरीकों से की जाती है. छिडकाव विधि से इसकी बुवाई के दौरान इसके बीजों को समतल की हुई भूमि में किसान भाई छिड़क देते हैं. उसके बाद बीजों को मिट्टी में मिलाने के लिए कल्टीवेटर के पीछे हल्का पाटा बांधकर खेत की दो बार हल्की जुताई कर देते हैं. इससे बीज भूमि में लगभग तीन सेंटीमीटर नीचे चला जाता हैं.

ड्रिल विधि से बिजाई के दौरान इसके बीजों को मशीनों की सहायता से कतारों में लगाया जाता हैं. कतारों में इसकी रोपाई के दौरान प्रत्येक कतारों के बीच लगभग एक फिट दूरी होनी चाहिए. और कतारों में बोये जाने वाले बीजों के बीच 15 सेंटीमीटर के आसपास दूरी होनी चाहिए. रागी के बीजों की दोनों विधि से रोपाई करने के दौरान इसके बीजों को भूमि में तीन से पांच सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए. इससे बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है.

पौधों की सिंचाई
रागी के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती. क्योंकि इसकी खेती बारिश के मौसम में की जाती हैं. और इसके पौधे सूखे को काफी समय तक सहन कर सकते हैं. अगर बारिश के मौसम में बारिश समय पर ना हो तो पौधों की पहली सिंचाई रोपाई के लगभग एक से डेढ़ महीने बाद कर देनी चाहिए. इसके अलावा जब पौधे पर फूल और दाने आने लगे तब उनको नमी की ज्यादा जरूरत होती है. इस दौरान इसके पौधों की 10 से 15 दिन के अंतराल में दो से तीन बार सिंचाई कर देनी चाहिए. इससे बीजों का आकार अच्छे से बनता है. और उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है.

उर्वरक की मात्रा
रागी के पौधों को उर्वरक की ज्यादा जरूरत नही होती. इसकी खेती के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त लगभग 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में डेढ़ से दो बोरे एन.पी.के. की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण
रागी की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीकों से किया जाता हैं. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज रोपाई के पहले आइसोप्रोट्यूरॉन या ऑक्सीफ्लोरफेन की उचित मात्रा का छिडकाव खेत में कर देना चाहिए. जबकि प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण पौधों की नीलाई गुड़ाई कर किया जाता है. इसके लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के लगभग 20 से 22 दिन बाद उनकी पहली गुड़ाई कर दें. रागी की खेती में प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए दो बार गुड़ाई काफी होती है. इसलिए पहली गुड़ाई के लगभग 15 दिन बाद पौधों की एक बार और गुड़ाई कर दें.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
कीट और रोकथाम
सैनिक और कुतरा सुंडी: 
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यह फसल के शुरू के समय पर हमला करती है| यह सुंडी शुरू के समय में पौधे के आधार को काट देती है| यह रात को हमला करती है और दिन के समय पत्थरों के निचली ओर या दरारों की निचली ओर छिप जाती है| यह सुंडी बार बार बनती रहती है| 

रोकथाम:  कुतरा सुंडी के अंडों की रोकथाम के लिए 3 हफ्ते लगातार ट्राइकोग्रामा पैरासिटोइड हफ्ते में एक बार डालें| जब इसके लक्षण दिखाई दें तो मैलाथियान 5% 10 किलो प्रति एकड़ या क्विनलफॉस 1.5% 250 मि.ली. प्रति एकड़ का बुरकाव करें| कटाई के बाद नदीनों और खूंटियो को हटा दें|

चेपा:  
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यह फसल पर किसी भी समय हमला कर सकते है| यह पत्तों के बीच और बालियों पर पाये जाते है| चेपे के हमले के समय पत्ते पीले होने लग जाते है| इसके छोटे कीट गोलाकार और लाल-भूरे रंग के होते है| बढ़े कीट पीले होते है और इनकी टांगे हरे रंग की होती है|

रोकथाम:  अगर इसका हमला दिखाई दें तो, मिथाइल डेमेटन 25 ई सी 80 मि.ली. या डाइमेथोएट 30 ई सी 200 मि.ली. प्रति एकड़ को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें|

तने का सफेद छेदक: 
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इसका लारवा तने के निचले हिस्से में पाया जाता है और नुककसन करता है| यह जड़ों को खाते है और गंभीर हमले से बीच वाली शाखाएं सूख जाती है और पीली पड़ जाती है| इसका लारवा सफेद दूधिया रंग का होता है और इसका सिर पीला, जबकि बढ़े कीटों का रंग गहरा भूरा होता है और पंख सफेद रंग के होते है|

रोकथाम: अगर इसका हमला दिखाई दें तो, कार्बरील 50 डब्लयू पी 1 किलो प्रति एकड़ या डाईमैथोएट 30 ई सी 200 मि.ली. को प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें|

बालियों का टिड्डा: 
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यह दूध के दानों के तैयार होने पर हमला करते है| यह गुच्छों को खाते है और दानों को अंदर से खाकर उस पर जला डाल देते है| इसके संतरी बालों वाले अंडे चमकीले सफेद रंग के होते है और गुच्छों में मिलते है| इसकी सुंडी भूरे रंग की होती है, जिसका सिर पीला रंग का और बालों वाली होती है| इसके कीट भूरे रंग के होते है, जिसके अगले पंख रेशेदार और पिछले पंख पीले होते है|

रोकथाम:  इनको आकर्षित करने के लिए दिन के समय रोशनी वाले यंत्रों का प्रयोग करें| फूल निकलने के समय फीरोमोन कार्ड 5 प्रति एकड़ में लगाएं| गंभीर हमले की स्थिति में मैलाथियान 400 मि.ली. या कार्बरील 600 ग्राम को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें|

घास के टिड्डे: 
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यह पत्ते खाते है| छोटे कीट सफेद रंग के होते है, जिसमें धारियां होती है और बढ़े कीट हरे-भूरे रंग के होते है, जिनमे धारियां होती है|

रोकथाम: कटाई के बाद पौधों के बचे-खुचे को निकाल दें और अच्छी तरह से सफाई करें| गर्मियों में कटाई के बाद जोताई करें, ताकि मिट्टी के अंदरूनी अंडे धूप के साथ नष्ट हो सकें| शुष्क और नमी वाली स्थितियों में इसकी रोकथाम के लिए एंटोमॉफ़्थोरा गरिल्ली डालें| अगर हमला दिखाई दें तो कार्बरील 50 डब्लयू पी 600 ग्राम प्रति एकड़ की स्प्रे करें|

पत्ता लपेट सुंडी: 
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इसके साथ पत्ते लम्बाई के आकर में मुड़ जाते है पर लारवा इनके अंदर रहता है| यह पत्तों को नुकसान करती है, जिस कारण इस पर सफेद धब्बे दिखाई देते है| मादा सुंडी पत्ते के दोनों तरफ 200 अंडे देती है| अंडो का रंफ सफेद-पीला होता है| लारवा हरे-पीले रंग का होता है, जिसका सिर भूरे या काले रंग का होता है| इसकी भुंडी गहरे भूरे रंग की होती है और मुड़े हुए पत्ते के अंदर पायी जाती है, जबकि बढ़े कीट सफेद-पीले या सुनहरी-पीले रंग के होते है|

रोकथाम: इस फसल के साथ अनाज वाली फसले ना उगाएं| खेत और आस-पास के इलाकों को साफ़ रखें| बिजाई के समय फासला कम ना रखे| नुकसान हुए पत्तों को इक्कठा करें और खेत को दूर ले जाकर नष्ट कर दें| इसकी रोकथाम के लिए क्लोरपारिफोस 2.5 मि.ली. कुंल्फॉस 2.5 मि.ली. या ऐसेफेट 1 ग्राम या कार्बरील 1 ग्राम या कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर की स्प्रे करें|

बीमारियां और रोकथाम
भुरड़ रोग: 
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गंभीर हमले के साथ पौधा सड़ा हुआ दिखाई देता है और फसल में गर्दन तोड़ भी देखा जा सकता है| यह ज्यादातर खरीफ़ की ऋतु में हमला करते है| अगर हमला नर्सरी में या बालियां बनने के समय हो तो पैदावार में बहुत कमी आती है|

रोकथाम: प्रतिरोधक किस्मे उगाएं| बिजाई से पहले फंगसनाशी जैसे कि कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम के साथ प्रति किलो बीज का उपचार करें| अगर इसके लक्षण दिखाई दें तो किसी एक फंगसनाशी कि स्प्रे करें, जैसे कि  कार्बेनडाज़िम 500 ग्राम प्रति एकड़| दूसरी और तीसरी स्प्रे फूल निकलने के समय 15 दिनों के फासले पर गर्दन या पत्तों पर हमला दिखाई देने पर करें| 50% बालियां बनने पर पत्तों पर ऑरियोफंगिन घोल 100  ppm और बाद में दूसरी स्प्रे 10 दिन के बाद मैनकोजेब 400 ग्राम या सिओडोमोनस फ्लूरोसेंस 0.2% की स्प्रे करें|

चित्तकबरा रोग: 
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इसके साथ शुरू में नाली वाले पत्तों पर छोटे काले धब्बे लगभग 45 DAS के पाये जाते है| गंभीर हमले के समय सारा पौधा पीला दिखाई देता है| नुकसान हुए पौधे की अजरुरतमन्द शाखाएं निकाल आती है और पौधे को अनुपजाऊ कर देती है|

रोकथाम: अगर इसके लक्षण दिखाई दें तो नुकसान हुए पौधों को जड़ों से उखाड़ दें और दूर ले जाकर नष्ट कर दें| मिथाइल डेमेटन 25 ई सी 200 मि.ली. प्रति एकड़ की स्प्रे करें| जरूरत पड़ने पर दूसरी स्प्रे 20 दिनों के फासले पर करें|

फसल की कटाई
आमतौर पर फसल 120-135 दिनों में पक जाती है, पर इसका समय प्रयोग की जाने वाली किस्म पर निर्भर करता है| कटाई दो बार की जानी चाहिए, बालियों को दराती के साथ काट लें और पौधे के बाकी हिस्से को ज़मीन के साथ में से काट लें| बालियों का ढेर बनाकर धुप में 3-4 दिनों के लिए सुखाएं| अच्छी तरह सुखाने के बाद थ्रेशिंग करें| कुछ जगह पर पूरा पौधा बालियों समेत काट लिया जाता है और फिर धूप में 2-3 दिन सुखाने के बाद थ्रेशिंग कर ली जाती है|

कटाई के बाद
रागी का प्रयोग शराब के कच्चे माल, बच्चो के भोजन, दूध गहरा बनाने के लिए और दूध वाली बिवरेज़ बनाने के रूप में प्रयोग किया जाता है| देश के कुछ हिस्सों में उबालु ड्रिंक या बियर भी इसी से तैयार की जाती है|

पैदावार और लाभ
रागी की विभिन्न किस्मों की प्रति हेक्टेयर औसतन पैदावार 25 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. जिसका बाज़ार भाव 2700 रूपये प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से 60 हज़ार रूपये तक की कमाई आसानी से कर लेता है.

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